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रचनादि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करने थे 1 आपके नाम के साथ लगी हुई योगीन्द्र उपाधि प्रापकी कठोर तपश्चर्या एवं आत्म-साधना का जयघोष कर रही है। आप कनड़ी भाषा के साथ संस्कृत भाषा के विशिष्ट विद्वान थे। और संक्षिप्त तथा सार रूप रचना करने में दक्ष थे ।
माघनन्दो नाम के अनेक विद्वान और प्राचार्य हो गए हैं। उनमें वे फोन हैं और गुरूपरम्परा क्या है ? यह विचारणीय है । इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि प्रस्तुत माधनन्दि योगोन्द्र (मूलसंघ बलात्कार गरण) के गुरु विद्वान श्री'कुमुदेन्दु थे। यह कुमुदेन्दु प्रतिष्ठा-कल्प टिप्पण के भी कर्ता थे । प्रतः इनका समय संभवत: विक्रम की १२ बी १३ वीं शताब्दी होना चाहिए । एक माधनन्दी कुमुदचन्द्र के शिष्य थे, जो माघनन्दि श्रावकाचार तथा शास्त्रसार समुच्चय के कनाड़ी टीकाकार हैं। कर्नाटक कवि चरित के अनुसार इनका समय ईस्वीसन् १२६० (वि० सं० १३१७) है। शास्त्रसार समुच्चय के कर्ता माधनन्दि योगीन्द्र इन से पूर्ववर्ती हैं । अर्थात् उनका समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है । अापकी यह अनुपम वृति संक्षिप्त स्पष्ट और अर्थगाम्भीर्य को लिए हुए है। इस ग्रन्य में प्रथमानुयोग, चरणनुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के साथ अनगार (मुनि) और श्रावक के धर्म तथा कर्तव्य का अच्छा विवेचन किया गया है । ग्रन्थ की टीका की भाषा कनाडी होने से वह तभाषा-भाषियों के लिये तो उपयोगो है ही, किन्तु प्राचार्य श्री १०८ देशभूषण जी महाराज द्वारा हिन्दी टीका हो जाने से वह हिन्दी भाषा-भाषी जनों के लिये भी उपयोगी हो गया है।
श्री प्राचार्य ने जब इस ग्रन्थ का अध्ययन किया था, उसी समय से इस को टीका करने का उनका विचार था, परन्तु पर्याप्त साधन सामग्री के अनुकूल न होने से वे उसे उस समय कार्य रूप में परिणत नहीं कर सके थे। किन्तु भारत को राजधानी दिल्ली में उनका चातुर्मास होने से उन्हें वह सुयोग मिल गया, और वे अपने विचार को पूर्ण करने में समर्थ हो सके हैं । पूज्यवर प्राचार्य श्री की मातृ-भाषा हिन्दी न होने पर भी उनका यह हिन्दी अनुवाद सुरुचि पूर्ण है। साथ ही, भाषा सरल और मुहावरेदार हैं और नन्थ के हाई को स्पष्ट करने में पूरा परिश्रम किया गया है । प्राचार्य श्री का उक्त कार्य अभिनन्दनीय है। आशा है, प्राचार्य महाराज भविष्य में जनता का ध्यान जिनवाणी के संरक्षण की ओर आकर्षित करने को कृपा करेंगे 1
-परमानन्द जैन शास्त्री