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________________ ( ३०३) ध्येय पदार्थ एवं व्यञ्जन ( पद ) का परिवर्तन होता रहे वह पृथक्त्ववितर्कवीचार है । विशेष विवरण इस प्रकार है: इस अन्त रहित र रूपी जल को पार करने की मा मानेवाले परम यतीश्वर के द्रव्य परमाणु भाव परमाणु आदि के अवलम्बन से शेष समस्त' वस्तुओं की चिन्तादिक व्यापारों को छोड़ कर कर्म प्रकृति की स्थिति अनुभाग को घटाते २ उपशम करते हुये अधिक कर्म निर्जरा से युक्त मन बचन काय रूप तीनों योगों में से किसी एक योग में या द्रव्य से गुण में अथवा पर्याय में कुछ नय के अवलम्बन से श्रुतज्ञान रूपी सूर्य की ज्योति के बल से अन्तमुहर्त्त का ध्यान करना, तत्पश्चात् अर्थान्तर को प्राप्त होकर अर्थात् गुण या पर्याय को संक्रमण करना पूर्व योग से योगान्तर को व्यंजन से व्यंजनान्तर को संक्रमण होता है उस शुक्लध्यान (पृथक्त्ववितर्कवीचार) के ४२ विकल्प होते हैं। वे इस प्रकार हैं:-- जीव के ज्ञानादि गुरण, पुद्गल के वर्णादि गुण, धर्म द्रव्य के मत्यादि, अधर्मद्रव्य के स्थित्यादि, अाकाश के अवगाहनत्त्व आदि गुण और कालद्रव्य के वर्तना इत्यादि गुण हैं । जन गुरगों की प्रतिसमय परिवर्तनशील पर्याय (अवस्थाएं होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य की अपेक्षा अन्य द्रव्य' द्रव्यान्तर या पदार्थन्तर है। प्रत्येक गुण की अपेक्षा अन्य सभी गुण गुणान्तर हैं और प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा अन्य पर्याय पर्यायान्तर हैं । ___ इस तरह अर्थ, अर्थान्तर, गुरण, गुणान्तर, पर्याय, पर्यायान्तर इन छहों के योगत्रय संक्रमण से १८ भंग होते हैं। द्रन्त तथा भाव तत्त्व के गुण-गुणान्तर तथा पर्याय-पर्यायन्तर इन चारों में योगय संक्रमण की अपेक्षा १२-१२भंग होते हैं । ये सब मिल कर ४२ भंग होते हैं। प्रश्न-एकाग्र चिन्ता निरोध रूप ध्यान में ये विकल्प कैसे होते हैं ? उत्तर-ध्यान करने वाला दिव्य ज्ञानी निज शुद्धात्म संवित्ति को छोड़ कर बाझ चिन्तवन को तो नहीं करता, किन्तु फिर भी प्रारम्भ काल में ध्यान के अंश से स्थिर होता है। उसके अन्दर कुछ न कुछ विकल्प होता रहता है जिससे कि वह ध्यान पृथक्त्व बितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान होता है। उसमें पहले कहा हुआ द्रव्य भाव परमाणु का अर्थ इस प्रकार है कि:-- द्रव्य शब्द से आत्म द्रव्य कहा जाता है। उस के गुण-गुरुगान्तर तथा पर्याय, पर्यायान्तर इन चार में मोगत्रय संक्रमण १२ भंग होते हैं। परमाणु क्या है ? रागादि उपाधि रहित सूक्ष्म निर्विकल्प समाधि का विषय होने के कारण
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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