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________________ ( ३०४ ) इस द्रव्य परमाणु शब्द को कहा गया है । भाव शब्द से श्रात्म द्रव्य का स्वयंवेतन ज्ञान परिणाम से ग्रहण होता है। उसके लिये सूक्ष्म अवस्था इन्द्रिय मनोविकल्प ही विषय होने के कारण भाव - परमाणु सम्यक्त्व का व्याख्यान जानना चाहिए | इस ध्यान को पहले संहनन से युक्त उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थान वाले करते हैं । उसका फल २१ चारित्र मोहनीय कर्मो का उपशम करना है तथा वज्र वृषभ नाराच संहनन वाले चरम शरीरी अपूर्वकरणादि क्षीण कषाय के प्रथम भाग तक ही केवल क्षपक श्रेणी तक ध्यान करते हैं । अर्थात् वह ध्यान सारि मोहनीय आदि कर्म अप से होता है तथा वह शुक्लतर लेश्या वाला होता है। श्री की अपेक्षा यह ध्यान स्वर्गापवर्ग गति का कारण होता है । और पूर्व श्रुत ज्ञानी के होता है । यथाख्यात वृद्ध संयम से सहित एवं शेष क्षीरणकषाय के भाग में एकत्व से निर्विकार सहज सुखमय निज शुद्ध एक चिदानन्द स्वरूप में ही रत रहकर भावना करने वाले निरुपाधि स्वसंवेदन ज्ञान का अवलंबन कर श्रुताश्रित अर्थ व्यञ्जन के तथा योग के परिवर्तन से रहित होना एकत्व वितकं प्रवीचार नामक दूसरा शुक्ल ध्यान है । ग्रतएव पहले से असंख्यात गुणश्र ेणी कर्म निर्जरा होती है। द्रव्य भाव स्वरूप ज्ञानावरण दर्शनावरण तथा 'अन्तराय इन तीनों घाति कमों के नाश होने से शीघ्र ही नव क्षायिक लब्धिरूपी किरणों से प्रकाशित होने वाले सयोग केवली जिन भास्कर तीर्थंकर होते हैं । इसी तरह इतर कृतकृत्य, सिद्ध-साध्य, बुद्ध-बोध्य, अत्यन्त अपुनर्भव, लक्ष्मी संगति से युक्त अत्रिन्त्य ज्ञान वेराग्य ऐश्वर्य से युक्त र्हन्त भगवान् तीन लोक के अधिपति होकर अभ्यर्चनीय व अभिबंध होकर दिव्य धर्मामृत सार से भव्य जन रूपी वस्य की वृद्धि करते हुये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पूर्व कोडाकोडी काल बिहार करते हैं । अर्हन्त की लब्धियाँ इस प्रकार हैं अनन्तज्ञानहग्वीर्यविरतिः शुद्धदर्शनम् । दानलाभ च भोगोपभोगवानन्तमाश्रिता ॥४६॥ अर्थ अनन्तज्ञान, दर्शन, वीर्य, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग क्षायिक सम्यक्त्व येεलब्धि होती हैं । इन लब्धियों को प्राप्त कर लेने पर ही अर्हन्त परमेश्वर कहलाते हैं। तत्पश्चात् विहारादि क्रिया करते हैं । अन्तर्मुहूर्त की शेष ग्रायु में संसार की ( शेष ३ अधाति कर्मों की ) स्थिति समान होने पर बादर मनो वचन श्वासोच्छवास से बादर काययोग में फिर उस से सूक्ष्म मनोवचन व उच्छ्वास में ग्राकर उसे भी नाश कर सूक्ष्म काय योग होता है । यही सूक्ष्म क्रिया प्रतिपानी नामक तीसरा शुक्ल ध्यान है । यदि किसी
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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