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की आयु की अपेक्षा वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म की स्थिति अधिक होती है तो उसे आयु की स्थिति के समान करने के लिये समुद्घात (प्रात्म-प्रदेशों का कुछ अंश शरीर से बाहर निकलना) करते हैं।
प्रथम ही चार समय में क्रम से दण्ड, कपाट, प्रतर व लोक पूर्ण रूप आत्म-प्रदेशों को फैलाते हैं। यदि खड़े हों तो प्रथम समय में शरीर की मोटाई में और यदि बैठे हों तो शरीर से तिगुणी मोटाई में पृथ्वी के मूल भाग से लेकर ऊपर सात रज्जू तक पात्म प्रदेश दण्डाकार यानी दण्ड के रूप में प्राप्त होना दण्ड समुद्घात कहलाता है।
द्वितीय समय में यदि उनका मन्द पूर्व दिशा में हो तो दक्षिण- उत्तर में फैल जाता है, यदि उत्तराभिमुख हों तो पूर्व सूचित बाहुल्य सहित होकर विस्तार किये हुए प्रदेश से अत्यन्त सुन्दराकार को धारण करना कपाट समुद्घात कहलाता है।
तीसरे समय में दातवलय त्रय के बाहर के शेष सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त होने का नाम प्रतर है ।
चौथे समय में लोक में परिपूर्ण व्याप्त होना लोक पुरण समुद्घात कहलाता है । इसमें एक एक समय में शुभ प्रकृति का अनुभाग अनन्तगुण हीन होता हुआ एक एक में स्थिति कांडक धात होता है।
उससे आगे अन्तमुहर्त में एक ही स्थिति कांडक घात होता है । लोकपूर्ण समुद्घात में प्रायु स्थिति तथा संसार स्थिति समान हो जाती है । शेष पांचवें समय में वातावरण में न रहकर जीव प्रदेशों को संकोच करके प्रतर में प्रा जाता है । छठे समय में प्रतर को कपाट समुद्घात करता है, सातवें समय में कपाट को विसर्जन कर दण्ड समुद्घात रूप होता है, आठवें समय में दण्ड समुद्घात को संकोच कर जीबप्रदेश निज शरीर प्रमाण में आते हैं। इस प्रकार उपयुक्त समुद्घातों को करके सयोग केवली गुरास्थान में चारों अघाती कर्मों की समान स्थिति होती है। तत्पश्चात् योग निरोध करने के पहले पूर्व के समान बादर मनबचन श्वासोच्छवासों को बादर कायिक योग से निरोध करने के पश्चात् बादरकाय योग सूक्ष्म मन वचन श्वासोच्छवास इत्यादि को सूक्ष्म काय योग से क्रमश: निरोधकरने से सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती नामक तीसरा शुक्ल ध्यान होता है । इसे उपचार से ध्यान भी कहते हैं क्योंकि ज्ञान लक्षण से रहित होने के कारण उस ध्यान के फल से सूक्ष्म काय योग होता है । उसको नाश करने के बाद मन्समुहूंत में अयोगो केवली