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गुरणस्थान होता है । पंच ह्रस्वाक्षरों के उच्चारण समय अर्थात् अ इ उ ऋ तृ इन पांच अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय उस गुरण स्थान में नि:शेष कर्म को निरालव करके सम्पूर्ण शील' गुणों से समन्वित अपने द्विचरम समय में १३ प्रकृतियों को निर्विशेष रूप से नाश करता है । इस प्रकार शेष ८५ प्रकृति अयोगी केवली गुणस्थान में व्युपरत-क्रिया-निवृत्ति नामक चौथे शुक्ल ध्यान से नाश होती हैं । इसे भी उपचार से ध्यान कहते हैं । इस ध्यान से सांसारिक समस्त दुःखों को नाश कर ध्यानरूपी अग्नि से निर्दग्ध सर्व कर्म मल रूपी ईधन निरस्त करने के बाद नव जन्म होने के समान शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त होकर उसो समय लोकान में स्थित होता है । यह अपने को स्वयमेव देखने और जानने योग्य ग्राभ्यन्तर शुक्ल ध्यान का लक्षण है । गात्र, नेत्र परिस्पन्द रहित, अनभिव्यक्त प्राणापान प्रचारित्व, नामक पर को देखने व जानने में पाने के कारण ये शुक्ल ध्यान के बाह्य लक्षण होते हैं ।
___ इस प्रकार कहे हुए धर्म, शुक्ल ध्यान को मुख्यवृत्ति से स्वशुद्धात्म द्रव्य * ही ध्येय रूप होता है और शेष विकल्प गौण होते हैं। सिद्धान्त के अभिप्राय से दोनों विषयों में कोई विशेष भेद नहीं है । अतः धर्मध्यान. सकषाय परिणाम होकर मार्ग में लगे हुए दीपक के समान अधिक समय तक नहीं टिकता । किन्तु शुक्लध्यान असंख्यात गुरणे प्रकाश से मरिण के समान सदा प्रकाशित रहता है। इन दोनों में केवल इतना ही भेद है ।
षड् गुणस्थान पर्यन्त प्रात ध्यान और पंचम गुणस्थान पर्यन्त रौद्र ध्यान है, ये दोनों मागम में सर्वथा हेय माने गये है ।
असंयत सम्यादृष्टयादि चतुर्थ गणस्थान भूमि सम्बन्धी जो धर्म ध्यान है वह कारण रूप से उपादेय है । अपूर्वकरण प्रादि सयोगकेवली पर्यन्त वर्तनेवाला शुक्ल ध्यान साक्षात् उपादेय है।
इस प्रकार शुक्ल ध्यान का वर्णन समाप्त हुया !
प्रागे बारह प्रकार के तपों से उत्पन्न पाठ प्रकार की ऋद्धियों को कहते हैं:
अष्टौ ऋद्धयः ॥५॥ अर्थ-१-बुद्धि ऋद्धि, २-क्रियाऋद्धि, ३-विक्रियाऋद्धि, ४-तपति, -बलऋद्धि, ६-ऐश्वर्यऋद्धि, ७-रसऋद्धि तथा ८-अक्षीणऋद्धि में ऋद्धियों के माठ भेद हैं।