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________________ (३४) बुद्धिरष्टावश मेवा ॥५६ बुद्धि ऋद्धि के १८ भेद होते हैं। १-केवल ज्ञान, २-मनः पर्यय ज्ञान, ३-अवधिज्ञान, ४-बीज बुद्धि, ५-कोष्ठ बुनि, ६-पदानुसारी, ७-सम्भिन्न श्रोत्र, ८-दूरास्वादन ६-दूरस्पर्शनत्व. १०-दूरमाण, ११-दूरदर्शन, १२-दूरश्रवण, १३-दशपूर्व, १४-चतुर्दश पूर्व, १५-अष्टांगमहानिमित्त ज्ञान, १६-प्रज्ञाश्रवरण, १७-प्रत्येक बुद्धि, १८-वादित्व ऐसे बुद्धि ऋद्धि के १८ भेद हैं। समस्त पदार्थों को युगपत् जानना केवल ज्ञान है । २-पुद्गल आदि अन्य वस्तुओं को मर्यादा पुर्वक जानना अवधि ज्ञान है। ३-दूसरे के मन की बातों को जानना मन: पर्ययज्ञान है । ४-एक अर्थ से अनेक अर्थों को जानना बीज बुद्धि है । ५-जैसे कृषक अपने घात्यभंडार यानी गल्ले की कोठरी में से रक्खे हए भांति भांति के बीजों को आवश्यकता पड़ने पर निकालता रहता है उसी प्रकार कोष्ठ बुद्धि धारक ऋद्धि धारी मुनि मुमुक्षु जोवों के अनेक प्रश्नों के उत्तर को अपनी बुद्धि द्वारा देकर सन्तुष्ट कर देते हैं । यह कोष्ठ बुद्धि है। ६. जिस प्रकार की शिक्षा मिली हो उसी के अनुसार कहना प्रतिसारी है। पढ़े हुए पदों के अर्थ को अपनी बुद्धि के अनुसार अनुमान से कहना अनुसारी है। पढ़े हुए पदों को प्रागे पीछे के अर्थ को अनुमान से कहना उभयानुसारी है । ये पदानुसारी के तीन भेद हैं। ७-बारह योजन लम्बे और ६ योजन चौड़े वर्ग में पड़ी हुई चक्रवर्ती की सेना की भाषा को पृथक पृथक् सुनना या जानना संभिन्न श्रोत्र है । ५-पांत्र रसों में से किसी दूरवर्ती पदार्थ के १ रस को अपनी बुद्धि से जान लेना दूरास्वादन है। 6-दूरबर्ती पदार्थ के पाठ प्रकार के स्पर्शो को जान लेना दूर स्पर्श है। १०--- बहुत दूरवर्ती पदार्थ को देख लेना दूर दर्शन है। ११-बहुत दूरवर्ती पदार्थ की गन्ध को जान लेना दूर गंध घाण कहलाता है । १२-बहुत दूरवर्ती शब्द को सुन लेना दूर श्रवण है । १३-रोहिणी प्रादि ५०० विद्या देवता, अंगुष्ठ प्रसेन आदि ७०० क्षुल्लक विद्यानों को प्रचलित रूप से जानना तथा प्रचलित चारित्र के साथ दशपूर्व आदि को जानना दशपूर्व है । १४-चौदह पूर्वी को जानना चतुर्दश पूर्व है । १५-अन्तरिक्ष निमित्त, भीमनिमिस, अंग निमित्त, स्वरनिमित्त व्यञ्जन निमित्त, लक्षण निमित्त, छिन्न निमित्त, स्वप्न निमित्त, ये अष्टांग निमित्त हैं। चन्द्र सूर्यादि ग्रह नक्षत्रों को देखकर नयनाङ्गादि को कहना अन्तरिक्ष निमित्त है । पृथ्वी के ऊपर बैठे हुये मनुष्य को देखकर नयनांग को कहना भौम निमित्त है। तिर्यञ्च मनुष्य प्रादि के रस मोर घिर प्रादि को देखकर
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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