SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोकारवाय 5 हं, अनुपमो ऽ हं, अचिन्त्यो 5 हं, अतक्र्यो 5 हं, अप्रमेय-स्वरूपो ह, अतिशय र रूपो ऽहं, शाश्वतो ऽहं, शुद्ध स्वरूपो ऽहं,' इस प्रकार जगत्रय कालत्रय में इस भन्न का मनवचन काय कृत कारित अनुमोदन सहित शुद्ध मन से समस्त भव्य जीवों को ध्यान करना चाहिए “यही मेरा स्वरूप है" ऐसी भावना करना साक्षात् अभ्युदय निःश्रेयरा सुख प्रदान करनेवाला निश्चय धर्म ध्यान होता है । इस ध्यान से अन्त में निःश्रेयस सुख की प्राप्ति होती है। पुनः शक्तिनिष्ठ निश्चयनय से अनन्तगुरण चिन्तामणि की खानि के समान स्वात्मतत्त्वादि पदार्थ परिज्ञान के लिए तत्व वेद में रत होकर पाराधना करने की सद्भावना तथा उस परमात्म ज्योति रूप सस्त्र की सादर के सा : .. सुनने की लालसा करना, उस परमात्मतत्व को भेद पूर्वक ग्रहण करने की शक्ति रखना, उस नित्यानन्द के स्वभाव को कालान्तर में भी न भूलने की धारणा रखना, उस परम पारिगामिक भावना को सदा स्मरण करने की शक्ति, उस परमानन्दमय सहजानन्द परमात्मा को बारम्बार चिन्तन करने की रमृति, उस परम भाव की भावना को निरन्तर ध्यान करने आदि की भावना रखना परमनिष्क्रिय टंकोल्कीर्ण ज्ञानक स्वभाव नामक ध्यान है । स्मृतिस्तत्वे सकृच्चिन्ता मुहुर्मुहुरनुस्मृतिः । __ भावनास्तु ग्रबन्धात्स्यायानमेकानिहितः ॥४७॥ असंयते स्म ति देशसंयतेऽनुस्मृतिः स्म ता । प्रमत्त भावना प्राहानं स्यादप्रमत्तके ॥४८॥ अर्थ-तत्त्वका एक बार चिन्तन करना स्मृति है, बार वार चिन्तवन करना अनुस्मृति है । विचार करना भाना भावना है और चित एकाग्न करना ध्यान है। अर्थ-इनमें से असंयत में स्मृति, देश संयम में अनुस्मृति, प्रमत्तगुणस्थान में भावना, अप्रमत्त में ध्यान होता है । यह धर्मध्यान पोत, पद्म तथा तथा शुक्ल लेश्यावालों को होता है। इति धर्मध्यानम् शुक्लध्यानं चतुविधम् ॥१७॥ शुल्क ध्यान के चार भेद हैं जो कि क्रमशः पृथक्त्व-वितर्क-बोचार, एकत्ववितर्क अवीचार, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती तथा व्युपरत-निया-निवृत्ति नाम से प्रसिद्ध हैं। उनमें पृथक्त्व का अर्थ 'अनेक प्रकार का है, वितर्क पूर्वक यानी श्रुतज्ञान के साथ जो रहता है । वीचार का अर्थ-ध्यान किये जाने वाला ध्येय द्रव्य, गुण, पर्याय, प्रागम वचन, मन वचन कायादिक का परिवर्तन होना है। अर्थात् जिस शुक्ल ध्यान में श्रुतज्ञान के किसी पद के अवलम्बन से योगों तथा
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy