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किसी देवी देवता पर बलि चढ़ाने के लिए, श्राद्ध में पितरों के लिए या किसी औषधि के लिए अथवा किसी अन्य कारण से किसी त्रस जीव की संकल्प से हत्या नहीं करना अहिंसा अणुव्रत है।
स्वार्थ-वश या राग, द्वेष, मोह, लोभ, भय के कारण झुठ बोलने का त्याग करना सत्य-अणुव्रत है
जल मिट्टी के सिवाय किसी दूसरे व्यक्ति के किसी भी पदार्थ को बिना दिये नहीं लेना प्रचौर्य अणुव्रत है।
अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय जगत की समस्त स्त्रियों से विषयसेवन का त्याग ब्रह्मचर्य प्रणवत है । इसका दूसरा नाम स्वदार-सन्तोष भी
धन, खेत, मकान, सोना, चाँदी, वस्त्र, आदि का अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण करके अन्य परिग्रह का संचय न करना परिग्रह परिमारण अणुव्रत है।
अन्न गुणनतों को कहते हैंगुणवत त्रयम् ॥१६॥ अर्थः-तीन गुणवत हैं । १-दिग्नत, २-देशन्नत, ३. अनर्थदण्ड प्रत ।।
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ये चार दिशा, इन दिशाओं के कोने को चार विदिशाएँ तथा ऊपर आकाश और पृथ्वी के नीचे, ऐसे का, अधः ऐसी दो दिशाएँ पीर हैं। इन दशों दिशाओं में आने जाने के लिए दूरी का परिमाण जन्म भर के लिए करना दिग्बत है।
दिग्द्रत में घंटा दिन मास प्रादि समय तथा क्षेत्र का संकोच करके मुहल्ला, नगर, मकान आदि में आने जाने का नियम करना देशवत है । जैसे चातुमसि में हम उपनगरों सहित दिल्ली नगर से बाहर न जावेंगे । इन दोनों व्रतों के कारण नियम किए हुए क्षेत्र से बाहर होने वाली हिसा मादि पापों का मश व्रती को नहीं लगता, अत: वहाँ अणुव्रत भी महावत के समान होते हैं ।
जिन कार्यों के करने में बिना कारण पाप बन्ध होता है ऐसे कार्यों का त्याग करना अनर्थदण्ड नत है । अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं:- १ हिंसा-प्रदान, २ पापोपदेश, ३ दुःश्र ति, ४ अपध्यान और ५ प्रमादचयी।।
_तलबार, छुरी, भाला, धनुष बाण, बन्दूक, चाकू, विष, अग्नि प्रादि हिंसा के उपकरणों का दूसरे लोगों को देना हिंसा प्रदान अनर्थवण्ड है। के