________________
८
( २३० )
है । १ अनित्य, २. अशरण, ३ संसार, ४ एकत्व, ५ अन्यत्व, ६, अशुचि, ७ संवर, ६ निर्जरा, १० लोक, ११ बोधिदुर्लभ, १२ धर्म ये १२ बारह, भावनाओं के नाम हैं ।
आस्रव
श्रद्धयमसरणमेकत्तमण्णत्त संसारलीकमसुचितं । प्रासव संवर णिज्जरधम्मं बोहिच्च चित्तज्जो ॥ घनबुंद सदृशं बे। वन तनुधनपुत्रमित्र वर्गं ध्रुवम || स्तनुपम चित्कार्य ध्रुव । मेनगे निजात्मार्थ भोंषे निजगुण निरता ।।
अर्थ —गांव, नगर, स्थान, चक्रवर्ती, इन्द्र, धरणीन्द्र- पद, शरीर, माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि सांसारिक पदार्थ इस जीव के लिये नित्य हैं । शुद्ध अविनाशी श्रात्मा ही चिन्तवन करने योग्य है क्योंकि ग्रात्मा ही नित्य है । यह अनित्य भावना है।
- नरकादि चतुर्गतिसं। सरण जनित दुःख सेवना समयदोळा -1
शेर निनगे जिन वर्म । शरणल्लदोडेंदु नेते निज गुरण रत्ना ॥ २ ॥
हे जीवात्मन् ! मनुष्य, देव, नरक, निर्यन इन चार गतिमय संसार में जन्म लेने वाले जीव को सदा दुख भोगते समय या मरते समय जल, पर्वत, दुर्ग ( किला ), देव, मंत्र, औषधि, हाथी, घोड़ा, रथ, सेना तथा घन, सुबर, मकान, स्त्री, पुत्र, भाई आदि कोई भी शरण ( रक्षक बचानेवाला) नहीं है । केवल पंच परमेष्ठी द्वारा प्रतिपादित जैन धर्म तथा चैतन्य चमत्कार रूप अपना आत्मा ही शरण है । यह ग्रशर
भावना है ।
जननं मरणादि गतिसं । जनित सुखासुखमनात्मरुचिवत्सेवा || जनित सुखममृत सुखसु । मननुभविकु जीवनोदे निज गुणरत्ना ॥३॥ अर्थ-जन्मते बढ़ते मरते समय, शुभ अशुभ कर्म करते समय तथा उन कर्मों का फल भोगते समय, सुख दुख का अनुभव करने के समय केवल सिद्ध भगवान हो सुख शान्ति प्रदान करते हैं, अन्य माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि बन्धुवर्ग कोई भी जोव को गुख शान्ति नहीं देते, वे तो केवल भोजन करते समय एकत्र हो जाते हैं। यानी वे केवल स्वार्थ के साथी हैं। ऐसा विचार करना एकत्व भावना है ।
विमल गुरणनात्म द्रव्य । दिद भिन्न समस्त गुण पर्याय || सदसद्भूत व्यवहार दिए मन्यमेनं पडगु निजगुरण निरता ||४||
अर्थ-ज्ञान दर्शन सुखवीर्य ही आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, अतः