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निजात्मस्वरूप में
विनाश करके नित्य, निरामय, निर्मल निर्विकार लीन रहू, इस प्रकार की भावनाओं से संसार समुद्र से पार हो जाता है । इस प्रकार श्रावकाचार का निरूपण हुआ आगे द्वादशानुप्रेक्षा का विवेचन करेंगे ।
सारतरनात्मनति निस्सारतरं देहमेंम्ब निश्चलमतिथि । नारेवडेव सशगोळ बने धीरं तत्तनुवळिवपददीकु पेरं ॥ १६४ ॥ अर्थ — संसार में एक आत्मा ही सारभूत है और शरीर निस्सार है । ऐसी निश्चल बुद्धि - पूर्वक भावना से शरीर को स्वागने वाला कि धीर पुरुष है ॥ १६४ ।।
रिसदेनेने कूळ | नोरमन ज्ञानबिंदमिरुतु पगलु ॥
सरतर परम सौख्यसु । धारस भरितात्मतत्वम ने नेमनदोळ् ॥१६५॥ अर्थ- हे जीवात्मन् ! तु रात दिन अज्ञानवश अन-पानादिक खाद्य पेय पदार्थों का ध्यान करके अपनी श्रात्मा का अधःपतन न कर, किन्तु सासर परम सौख्य सुधारस - भरित ग्रात्म-तत्व का ध्यान कर ।। १६५।। पट्टिकै कुलिकम नेट्टने निदिक्रेवोडल देतिदोडेमेस ॥ विदाहनिजदल्लि मिले हों गट्टि सर्ने मुक्ति कन्लेगा सुदिमाम्पं ॥ १६६ ॥ अर्थ-उठते बैठते, सोते, जगते चलते तथा फिरते समय कभी भी शरीर का ध्यान न करके अपने निजात्मध्यान में मग्न रहने वाले प्रधान मुनि मोक्ष रूपी कन्या के अधिपति होते हैं ॥ १३६..
सुतितोळलला|सदेमनमं । मत्त दरोळिरलुमियदोथ्य ने नंदी 11 चित्तित्व दोळिरिसनिजा । यतं निर्वाध बोध सुखमप्पिने गं ॥ १६७ ॥
अर्थ-अपने मन को बाह्य विषय वासनाओं में न घुमाकर सदा अपने उपयोग में स्थिर करके निराबाध केवल ज्ञान होने पर्यन्त स्थिर रहो ॥१६७॥ भाविसु भाविसु भव्य म नोदचन शरीरदत्तरणं मेदिसि च । द्भावमनेपिडिद निच्चं । भावनेयि दल्लदक्कुमे भवनाशं ॥ १६८ ॥
अर्थ - हे भव्य जीव ! मन वचन काय की प्रवृत्ति बाहर की ओर से हटाकर प्रन्तर्मुख करो, तथा अपने चैतन्य भाव को ग्रहण करो। ऐसा किये बिना संसार की परम्परा नहीं टूटती ॥ १६८ ॥
द्वावशानुप्रक्षाः।। ३८
अर्थ — वैराग्य जाग्रत करने के लिए चिन्तयन करने योग्य १२ भावनाऐं