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________________ ( २३१) वे ही प्रात्मा के साथ सदा रहते हैं । इनके सिवाय अन्य कोई भी पदार्थ प्रात्मा के साथ नहीं रहता इस प्रकार विचार करना अन्यत्व गावना है। जिन वचनंपुसियल्लें । दुनंबिदविडदे पंच संसार विद-॥ र ननात्म ननाददि । नेनेतोडे संसार मुटे निजगुण निरता ॥५॥ अर्थ--द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, इन पंच परावर्तन रूप संसार वन में, अनादिकालीन वासना से वासित मिथ्यात्व एवं अविरत-रूपी, गहन अन्धकार में रहने वाले, जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित मार्ग को न देखते हुए, इधर उधर भटकते हुए अज्ञानी जीव-रूपी हिरणों को ज्ञानावरण प्रादि आठ कर्म रूपी व्याध (शिकारी) क्रुद्ध होकर घेरते हुए अपने दुर्मोह रूपी वारण से बोचते हैं। वह बारण भीतर घुसते ही उन संसारी जीब रूपी हिरणों को मूछित करके नीचे गिरा देता है । तव वह जोव पातं रौद्र परिणामों से मर कर नरक आदि दुर्गति में जाते हैं। इस प्रकार विचार करके संसार से विरक्त होकर ब्रतादि आचरण करने वाले जीवों को स्वपर-भेद-विज्ञान तथा निश्चल सहानुभूति रूप रत्नत्रयात्मक मोक्ष रूपी दुर्गं (किला) प्राप्त होता है। ऐसा चिन्तवन करना संसार भावना है ।। स्वीकृतरत्नतृतयं- । गाकाशाद्यखिळ वस्तु विरहित निजचि-॥.. ल्लोक मनालोकिसु वदे लोकानुप्रेक्षयन्ते निजगुण निरना ॥६॥ ____ अर्थ-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, प्राकाश, काल ये ६ द्रव्य जहां पाये जाते हैं वह लोक है, वह अकृत्रिम है तथा ग्रादि अन्त (काल की अपेक्षा) रहित है । उस लोक के तीन भेद है, ऊर्ध्व, मध्य, अधः (पाताल)। नीचे से ऊपर की ओर सात, एक, पांच, एक राजू है, उत्तर दक्षिण में सब जगह ७ राजू मोटा है । १४ राजू ऊंचा है। घनोदधि, घन तथा तनुवातवलयों से बढ़ा हुया, सब ओर से अनन्तानन्त लोकाकाश के मध्य में स्थित है। उसके अग्र भाग में सिद्ध क्षेत्र है। वह सिद्ध-क्षेत्र सर्व कर्म क्षय किये बिना किसी को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार समझ करके उस सिद्ध क्षेत्र में पहुंचने के लिये उद्यम करना चाहिये । ऐसा विचार करना लोक भावना है। शुचियेनिसिद वस्तुगळम- । शुचियेनिकुमोद लोडनेकायमनार ।। शुचियेनिस संहननं- । शुचि निजचित्तत्वमोंदे निजगुरमिरता।॥ अर्थ-रज वीर्य से उत्पन्न, सप्त धातुमय इस शरीर के द्वारों से दुर्गन्धित बृरिणत मैल बहता रहता है, इसमें अनेक प्रकार की व्याधियां भरी
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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