SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २३२ ) हुई हैं, यह अनित्य है, एवं जीव के लिये कारावास (जेल) के समान है, मलन पूरण (गलने पूरे होने) स्वरूप है। इस तरह समस्त दुर्गुणों से पूरी इस शरीर रूपी घर में रहते हुए जीव को इसके साथ नष्ट न होना चाहिये । यह शरीर धुने हुए गन्ने के समान यद्यपि नीरस है फिर भी चतुर किसान जिस तरह उस घुने हा गाने को खेत में लोकर मागे मी ने पैदा कर लेता है, उसी तरह इस असार शरीर को अविनाशी (मोक्ष) फल पाने के उद्देश से तपस्या द्वारा कृश कर लेना चाहिये । ऐसा विचार करना अशुचि भावना है। भववारिधि पोत्तमना-। स्रवरहितमनात्मतत्वभंभाविसुवं ॥ भवजलधियंदौटने- । समम सप्तयुतयोगि निजगुणनिरता ॥८॥ अर्थ-जिस प्रकार गर्भ लोहे का गोला यदि जल में रम्न दिया जाय तो वह अपने चारों ओर के जल को खींच कर सोख लेता है । इसी प्रकार क्रोध मान हास्य शोक आदि दुर्भावों से संतप्त संसारी जीव सर्वांग से अपने निकटवर्ती कार्मारा वर्गणाओं को आकर्षित करके अपने प्रदेशों में मिला लेता है। विभावपरिणति के कारण जीव को यह कर्म शास्त्रव हुआ करता है। ऐसा विचार करना प्रास्त्रव भाबना है। परमात्म तत्वसेवा- निरतं वतसमिति गुप्तरूप सकल सं॥ वरे युक्त मुक्तिवधू- । वरनागपिरं विवेक निजगुरपनिरता ॥६॥ अर्थ-जीब में कर्मों के प्रागमन रूप मिथ्यात्व द्वार को सम्यक्त्व रूपी बज कपाट से बन्द कर देना चाहिये तथा हिंसादि पंच पाप रूपी कर्म प्रागमन द्वार को पंच अणुव्रत, महावत, समिति के बज्र-कपाट द्वारा बन्द कर देना चाहिये । इस प्रकार चिन्त वन करना संवर भावना है ॥६॥ परम तपश्चरणात्मक । निरंजन ध्यानदल्लि संवरेयिं ॥ निर्जरेयुदोरेकोंडोडेमु-। क्तिरमापतियप्पुदरिदेनिजगुणनिरता ॥१०॥ अर्थ--विभाव परिणति द्वारा प्रात्म-प्रदेशों में दूध, जलके समान मिले हुए कर्म रूपी कीचड़ को अत चारित्र से युक्त भेद-विज्ञान रूपी जल से धो डालने का चिन्तवन करना निर्जरा भावना है ॥१०॥ अमृत सुख निमत्त वश-। धर्ममुमनमलगुणरत्नत्रय ॥ धर्ममुमनेनेवने । निर्मलविवेकिनिजगुरण निरता ॥१॥ अर्थ-- रत्नत्रय से युक्त ११ प्रकार के गृहस्थ धर्म तथा १० प्रकार के
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy