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श्री सादि
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और वृत्ति से पालन न करे तो मोक्ष सुख प्राप्त ऐसा समझ कर सदा धर्मानुरागी बने रहना धर्म
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मुख सं- । कुलबोळ जात्यादि कोधि दुर्लभमरिन। लभ बो- । धिलाममं पडेदु बिउदे निजग पनिरता ॥ शुद्धरत्न- । ययत्नमेलाभमेनलबोधि भाविसुगति ॥ धेियनेदि सुबदल्लि मि- । श्चयवसमाधियल्तेनिजगुणनिरता
॥१२॥ अर्थ-पृथ्वी जल, बनस्पति आदि अनन्त एकेन्द्रिय स्थावर जीवों से क भरा हुआ है, उन स्थावर जीवों में से निकल कर दोन्द्रिय आदि कठिन है, दो इन्द्रियों से विकलेन्द्रिय होना महादुर्लभ है । विकलेन्द्रिय चेन्द्रिय जीव का शरीर पाना और भी अधिक कठिन है, पंचेन्द्रिय जीवों पशु जीवों की संख्या प्रचुर है, अतः पशुओं से मनुष्य-भव पाना महाकठिन है । मुष्य भी यदि हित अहित विवेक-रहित नीच म्लेच्छ कुल में जन्म लेते हैं। पंखएड के सत्कुल में उत्पन्न होना कठिन है। अच्छे कुल में उत्पन्न होकर ल्पायु, असुन्दर, इन्द्रिय-विकलता, पंचेन्द्रियों में लीनता का होना, कुसंग, र दरिद्रता सरल है, दीर्घायु, सुन्दर, पूर्णेन्द्रियां, धर्म में रुचि, सम्पत्ति, संगति मिलना और भी कठिन है । सौभाग्य से यह सब सुयोग मिल भी जावें जैनधर्म का सुयोम मिलना महाकठिन है । कदाचित् सत्धर्म का योग भी ल जावे तो रत्नत्रय की शुद्धता, सत्वश्रद्धा, तप करने का भाव, धर्म भावना, जार शरीर भोगों से विरक्ति तथा समाधिमरण की एवं अंत में बोधि का प्राप्त ना महान दुर्लभ है। इस प्रकार चिन्तवन करना बोधिवर्लभ भावना ॥१२॥
इस प्रकार गृहस्थ धर्म का संक्षेप वर्णन हुआ।
यति धर्म यतिधर्मों वशविधः ॥३६। अर्थ-मुनियों का धर्म १० प्रकार का है। [१] उत्तम क्षमा, [२] उत्तम : मार्दव, [३] उत्तम प्रार्जव, [४] उत्तम शौच, [५] उत्तम सरप, [६] उत्तम
संयम, [७] उत्तम तप, [८] उत्तम त्याग, [6] उत्तम आकि यन्य, तथा [१०] उत्तम ब्रह्मचर्य ये उन धर्मों के नाम हैं।