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________________ ( १६३ ) पा लेता है परन्तु सम्यक्त्व न होने से उसका संसार भ्रमण नहीं छूट पाता ॥ १० ॥ हाथ पर रखे हुए आंवले के समान समस्त विद्यात्रों और कलानों को जान्दकर करोड़ों युग तक तपस्या करके भी सम्यग्दर्शन रूपी अमृत रस का आस्वादन न करने वाले मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त नहीं होती ॥ ११ ॥ यह सम्यग्दर्शन भव्य की तो बात ही क्या दूर भव्य को भी दुर्लभ है, यह तो निकट भव्य प्राणी को ही प्राप्त होता है ||१२|| जैसे कितना भी प्रकाश क्यों न हो अन्धे मनुष्य को कुछ दिखाई नहीं देता, इसी प्रकार भव्य को चाहे जितना उपदेश दिया जाये, ब्रताचरण कराया ara किन्तु उसे सम्यक्त्व नहीं होता | नेत्र रोग वाले मनुष्य को नेत्र ठीक हो जाने पर दिखाई देने लगता है उसी तरह दूर भव्य को दीर्घ समय पीछे मिथ्यात्व हटने से सम्यक्त्व प्राप्त होता है । किन्तु ठीक नेत्र वाले मनुष्य को प्रकाश होने पर तत्काल दिखाई देने लगता है । उसी तरह निकट भव्य को सम्यक्त्व की प्राप्ति शीघ्र हो जाती है । व्यवहार सम्यग्दर्शन— परम आराध्य श्री वीतराग भगवान, जिनेन्द्र देव का उपदिष्ट ग्रागम तथा पदार्थ और जिनेन्द्र देव के चरण चिन्हों पर चलने वाले परम निर्मल निग्रन्थ योगी का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है । अर्हन्त भगवान, जिनवाणी, निन्थ गुरु का तथा जिनवाणी में प्रतिपादित पदार्थों का श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है ॥ १३ ॥ निर्ग्रन्थ गुरु के वचन रूपी दीपक द्वारा प्रकाशित और अपने सुयुक्ति रूपी नेत्रों से देखे हुए श्रात्म-स्वरूप का निश्चय सम्यग्दर्शन है || १४ | अचल सुमेरु भी कदाचित् चलायमान हो जावे, अग्नि भी कदाचित् शीत ( ठंडी ) बन जावे तथा चन्द्र में भी कदाचित् उष्णता प्रगट होने लगे, तो हो परन्तु जिनेन्द्र भगवान के वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते, ऐसी प्रचल श्रद्धा का नाम सम्यक्त्व है ॥ १५ ॥ संसार में कोई भी देव या मनुष्य उत्कृष्ट ( सर्वोच्च) नहीं है, एक दूसरे से बढ़कर पाये जाते हैं, अतः उनका बड़प्पन अस्थिर है। वीतराग अन्त भगवान ही सबसे उत्कृष्ट है अतः वे ही पूज्य देव हैं, ऐसी अचल श्रद्धा का नाम सम्यग्दर्शन है ।। १६ ।। मोहनीय कर्म के समूल क्षय से अर्हन्त भगवान पूर्ण शुद्ध वीतराग हैं
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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