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________________ ( १६२ ) जितमूढत्रयमपसा- । रित षउनायन नमपगताष्ट मदंगळं वजित शंकाद्यष्ट मल - । प्रतीत नव सप्त तत्व मिदुसम्यक्त्वं ।२७। परनिदितखिळ हेया- । चरणदि संसार दुःखमच संतति संस्मरण मुपादेयदिनिदु-। परमार्थ तप्पदेब बगे सम्यक्त्वं ॥२८॥ कर कंजळरूपिदं । परिणमिसुथ तेरदि निनिमित्तं कालं दोरे कोळे तन्निदंतां । परमात्म नप्पेब बगे सम्यक्त्वं ।२६। नडेवेडेयोळ् नुडिवेडेयोळ् । केडेवेडेथोळ दुःख मेयदुवेडे योळ् जवनो यूवे.योळ तत्व स्मरणम- । नेडेवरियदेनेच्चिनोळपुददुसम्यक्त्वं ॥३०॥ प्रकाशन मोदसाह त । सगुन । बाह्य तप सं. जनिता यासदोळेने. । दनवरतं निजव नेनेबुददु सम्यक्त्वं ॥३१॥ निरुतं बोध चरित्र दो-। रडु तानेनिसदेक चत्वारिंशद्दुरिताप हनचित्य- । स्वरूप नविकल्प में बबगे सम्यवत्वं ॥३२॥ अर्थ-मायाचार, छलकपट, बचनवता (बचन में टेढ़ापन) आदि रखकर जो मनुष्य जैन धर्म की आराधना करता है उसको वास्तव में जैन धर्म प्राप्त नहीं होता ॥६॥ ___'यह योग्य है या अयोग्य' इस प्रकार विशेष विचार न करके केवल इन्द्रियों के अधीन विषय कषायों के लिए प्रयत्नशील मनुष्य को भी जैनधर्म की प्राप्ति नहीं होती ॥७॥ दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृतियों (मिथ्यात्व, सम्यकमिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति) तथा अनन्तानुबन्धी कषाय के क्रोध, मान, माया, लोभ, इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम, क्षय, क्षयोपक्षम होने पर ही सम्यक्त्व प्रगट होता है, इसके सिवाय सम्यक्त्व उदय होने का अन्य कोई उपाय नहीं है 111 पुण्यहीन मनुष्य द्रव्य पाने की इच्छा से एक पर्वत पर चढ़ता है, और उस पर्वत के मार्ग में इधर उधर निधि को ढूंढता है, दढले हूंढते जब उसको यह निधि मिलने का समय आता है तब वह पागल हो जाता है । पागल हो जाने पर उसको उस पास पड़ी हुई द्रव्य का ज्ञान भी नहीं रहता । उसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक मनुष्य अनेक शास्त्र वेद पुराण आदि पढ़कर भी प्रास्मतत्व के यथार्थ निर्णय की वृद्धि न होने के कारण जैसे के तैसे अज्ञानी ही बने रहते हैं , पाप कर्म की कितनी शक्ति है ! ॥६|| __दिगम्बर मुनि होकर कठोर तपस्या करके मनुष्य अहमिन्द्र' पद भी
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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