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अब इन मवनवासियों के भवन स्थानों का वर्णन करते हैं:---
भूमि से नीचे एक हजार योजन पर्यन्त व्यन्तर भवन हैं। भवन-वासियों में अल्पद्धिकों के भवन दो हजार योजन हैं। महद्धिकों के भवन ४२ हजार योजन पर्यन्त हैं। मध्यम महद्धिकों के भवन एक लाख योजन तक हैं। इनमें प्रसुरामर का भवन रत्नप्रभा पृथ्वी के खरभाग से नीचे रहने वाले पंक' भाग में है। शेष बचे हए नौ कुमारों के भवन खर भाग में हैं। उन भवनों में से कुछ का प्रमाण असंख्यात योजन है और वह सब चतुरस्र हैं। नाना रल समित है। सीन पार पाहुल्य, मान्यगती योजन ऊंचा तथा एक एक कूप से सुशोभित है। गणना करने पर कुओं की संख्या सात करोड़ बहत्तर लाख होती है। वहां से ३५, ४४, ३८ इन तीन स्थानों में ४० और अन्तिम में पचास लाख भवन होते हैं। उन भवनों के चमर, भूतानन्द आदि दक्षिणेन्द्र अधिपति हैं । और तीस, चालीस तथा चौंतीस इन तीन स्थानों में ३६, अन्तिम में ४६ लाख भवनों के वैराचन, धरणानन्द प्रादि उत्तरेन्द्र अधिपति हैं।
चोत्तीसच्चउदालं अड़तीसं च सुवितालपण्लणासं।
घउचउविहेणतारिणय इन्चारणं भवनक्खाणि ॥२१॥ उपर्युक्त प्रत्येक भवनों में एक एक जिन मन्दिर है।
वरजिनभवनंभवना। मरलोकदोळेळ कोरियुमत्सप्प ॥ तरडक्कु लक्क्रयव ।
वकुरुमुददि विनयविनतमस्तकनप्पं ॥५२॥ पहले कहे गये ज्योतिष्क देव मनुष्य क्षेत्र में सुदर्शन मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं । उनके गमन विशेष से दिन, बार, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त इत्यादि शुभाशुभ सूचक होते हैं । वह कैसे हैं, सो बतलाते हैं:--
रवि, सोम, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुम्न तथा शनि ये सात वार हैं।
प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, हादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा ये सोलह तिथियाँ हैं।
. यक्ष, वैश्वानर, रक्ष, नद्रित, पन्नग, असुर, सुकुमार, सिता, विश्वमाली, चमर, वैरोचन, महाविद्या, मार, विश्वेश्वर, पिंडासी ऐसे पन्द्रह तिथियों के पंचक कहलाते हैं।
नन्दा, भद्रा, जया रिस्ता, पूर्णा ये प्रतिपदा को आदि से तिथि पंचक हैं ।