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________________ जीता है, जो रहा है और जीवेगा । यह व्यवहारनयसे जीव का लक्षण कहा है पुद्गलादि अजीव द्रव्य है । स्पर्श, रस, गंध; वर्ण वाला होने के कारण पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। अनुपचारित असद्भूत व्यवहार नय की अपेक्षा जीव मूर्तिक है, शुद्ध निश्चय नय से भमूत है। धर्म अधर्म प्रकाश काल द्रव्य ये प्रमूर्तिक हैं। जीवादि पांच द्रव्य पंचास्तिकाय होने से सप्रदेशो हैं। बहप्रदेशि लक्षण कायत्व स्वभाव से काल द्रव्य अंप्रदेशी है। द्रव्याथिक नय से धर्म अधर्म आकाश ये एक एक हैं और गोम पुद्गला काल बने हैं। खेत्त-समस्त द्रव्य एक दूसरे को अवगाह देती हैं अतः समस्त द्रव्यों का क्षेत्र एक ही लोकाकाश है । किरियाय-क्षेत्र से क्षेत्रांतर गमन वाले होने के कारण जीव और पुद्गल क्रियावान हैं, धर्म, अधर्म, आकाश काल द्रव्य परिस्पंद के प्रभाव से निष्क्रिय हैं । रिगच्चं-धर्म अधर्म आकाश निश्चय काल द्रव्य अर्थपर्याय की अपेक्षा से अनित्य तथा द्रव्याथिक नय से नित्य है । जीव और पुद्गल द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य हैं और अर्थपर्याय के अपेक्षा से अनित्य हैं । उपकार की अपेक्षा पुद्गल धर्म अधर्म आकाश और वाल ये द्रव्य व्यव. हार नय से तथा जीव शरीर, वचन, मन और प्राणापनादि अस्तित्व अवगाहना वर्तना आदि से एक दूसरे को कारण हैं, तथा' आपस में स्व-पर सहायता करना जीवों का उपकार है। स्वामी धन प्रादि के द्वारा अपने सेवक का उपकार करता है, सेवक हित की बात कह कर और अहित से बचाकर स्वामी का उपकार करता है। इसी तरह गुरु उचित उपदेश देकर शिष्य का उपकार करता है और शिष्य गुरु की आज्ञा के अनुसार आचरण करके गुरु का उपकार करता है। ___अनुपचारित असद्भुत व्यवहार नय से पांचों द्रव्यों को परस्पर उपकारी माना है। परन्तु शुद्ध द्रव्याथिक नय से जीव पाप, पुण्य बंघ मोक्ष और घट पटादिक का कर्ता नहीं है । अशुद्ध निश्चय नय से शुभाशुभ उपयोग में परिणत होकर पुण्य पाप बंध का कर्ता होकर उसका भोक्ता है। इसके सिवाय विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभाव वाला विशुद्ध प्रात्मद्रव्य सम्यक् 'श्रद्धान' ज्ञानानुष्ठान रूप अभेद रत्नत्रयात्मक शुद्ध उपयोग में परिणत होकर निज परमात्म-अवलम्बन स्वरूप मोक्ष का कर्ता है तथा उस स्व शुद्ध परमानन्द "का भोका है। शुभाशुभ और शुद्ध उपयोग में परिणमन करने वाली वस्तु का कर्तृत्व पोर भोक्तृत्व इसी प्रकार समझना चाहिये ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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