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( ३३६ ) पुद्गलादि पाँच द्रव्यों को अपने अपने परिणामों में परिणमन होने से हो उन परिणमनों का कर्तृत्व माना गया है। - सव्वगदं-- लोक व्याप्ति की अपेक्षा से घर्म अधर्म द्रव्य सर्वगत हैं। एक जीव की अपेक्षा से लोक-पूर्ण अवस्था के अलावा सर्वगत नहीं है, नाना जोव अपेक्षासे सर्वगत है । पुद्गल द्रव्य लोक व्यापी मद्रास्कन्ध के अपेक्षासे सर्वगत है। शेष पुद्गल की नपेक्षा से सर्वगत नहीं है । नाना कालाणु द्रव्य की अपेक्षा से लोक में काल द्रव्य सर्वगत है । एक कालाण द्रव्य की अपेक्षा से काल द्रव्य असर्वगत है।
इय्यररियपय पयसो:-व्यवहार नय से सभी द्रव्य एक क्षेत्रावगाह से अन्योन्य प्रदेश में रहने वाले हैं । निश्चयनय से सब द्रव्य अपने अपने स्वरूप में रहते हैं।
अरणोपरणं पक्सिंता दिताउम्गासमरणमण्णस्स। मेलंतावि य पिच्चं सगसगभाव ए विजहंति ॥४॥
इन छह द्रव्यों में शुद्ध निश्चय नय से शुद्ध बुद्धक स्वभाव गुण से समस्त जीव राशियां उपादेय हैं अर्थात् उसमें जितने भी भव्य जीवों का समूह है वे सभी उपादेय हैं और परम शुद्ध निश्चय नय से शुभ मन वचन काम तथा व्यापार रहित वीतराग चिदानन्दादि गुण सहित जिन सिद्ध सहश निज परमात्मतत्त्व वीतराग निर्विकल्प समाधि काल में साक्षात् उपादेय है। शेष न्य हेय हैं।
खाविपंचकनिमुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम् । सिवात्मकं परंज्योति बन्दे बेवेन्द्रबंवितम् ॥ ___ सप्ततस्वानि ॥३॥
१ जीव, २ अजीव, ३ आस्रव, ४ बन्ध, ५ संवर, ६ निर्जरा तथा ७ मोक्ष इन सातों को तत्त्व कहते हैं । वस्तु के स्वभाव को तत्त्व कहते है है । जीव-तत्त्व अनुपरित सद्भुत व्यवहार नय की अपेक्षा से द्रव्य-प्राणों से, अशुद्ध निश्चय नय से रागादि अशुद्ध भाव प्राणों से और शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा से शुद्ध भाव-प्राण से त्रिकाल में जीने वाला जीव है । एकेन्द्रियादि में कर्मफल का अनुभव करने वाली फर्म फल-सना;
सकाय में अनुभव करने वाले जीवों के कर्म चेतना कहते हैं। और सिद्ध भगवान् के समान प्रात्मा को शुद्ध अनुभव करने वाली ज्ञान-चेतना है। इस सरह चेतना तीन प्रकार की हैं। अथवा भवादि समय रूपोपपाद योग, पपिप्ति