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पंच परमेष्ठी वाचक कैसे होता है ?
अरहन्ता पढमक्खरपिणो श्रोंकारी पंचपरमेट्ठी ॥
सरीरा आइरिया तह उवज्झया मुखियो ।
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अर्थ - श्रहंत परमेष्ठी का प्रथम शरीर रहित सिद्ध परमेष्ठी ) परमेष्ठी का का आदि अक्षर 'आइ
अक्षर 'अ' अशरीरी ( पौद्गलिक आदि अक्षर 'श्र' श्राचार्य परमेष्ठी
को मिलाकर सवर्ण स्वर सन्धि
के नियम अनुसार तीनों श्रक्षरों का एक अक्षर 'आ' हो गया । उपाध्याय परमेष्ठी का प्रथम 'उ' है । पहले तीन परमेष्ठियों के आदि श्रक्षरों को मिलाकर जो 'आ' बना था उसमें 'उ' जोड़ देने पर ( प्रा+उ) स्वर सन्धि के नियम अनुसार दोनों अक्षरों के स्थान पर एक 'ओ' अक्षर हो गया। पांचवें परमेष्ठी 'सुति' का प्रथम अक्षर 'म्' है उसको चार परमेष्ठियों के आदि अक्षरों के सम्मिलित अक्षर 'श्री' के साथ मिला देने पर 'ओम्' बन जाता है। इस प्रकार 'ओम्' या ॐ शब्द पंच परमेष्ठियों का वाचक ( कहने वाला ) है |
इस प्रकार परमेष्ठी वाचक मन्त्रों का जाप करने से हृदय पवित्र होता है, जिह्वा ( जीभ ) पवित्र होती है । मन और वाणी के पवित्र हो जाने से पाप कर्म क्षय होते हैं, श्रशुभ कर्म पलटकर शुभ कर्म रूप हो जाते हैं, कर्मों की निर्जरा होती है, रागांश के साथ पंच जाप करने से पुण्य कर्मों का बन्ध होता है, शत्रु, अग्नि, चोर, राजा, व्यन्तर रोग आदि का भय नष्ट होता है, सुख सम्पत्ति और स्वास्थ्य प्राप्त होता है ।
'पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ ध्यान के विषयभूत (ध्येय ) 'ग्रहंत' भगवान का स्वरूप कैसा है तथा उनका ध्यान किस प्रकार करना चाहिए अब यही बतलाते हैं
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अर्हन्त भगवान चार घाति कर्मरहित, भूख प्यास जन्म मरण श्रादि १६ दोष रहित, गर्भ जन्म श्रादि पांच कल्याणक सहित सिंहासन, है छत्र आदि प्रातिहार्यो से शोभायमान, ३४ अतिशयों से युक्त, सौ इन्द्रों से पूजनीय, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बल मंडित, समवशरण से महत्वशाली, १२ गणों से युक्त, सर्व - भाषामयी दिव्यध्वनि द्वारा समस्त जनहितकारी, समस्त तत्व प्रदर्शक उपदेश देने वाले अपने सप्त धातु रहित परम प्रोदारिक शरीर से करोड़ों सूर्य चन्द्र की प्रभा को भी फीकी करने वाले हैं । वे अर्हन्त भगवान सर्व पाप नाश करने वाले हैं। उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये ।
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