________________
( २४३ )
करता है उसको स्तब्ध दोष उत्पन्न होता है । प्रविष्ट दोष - पंचपरमेष्ठियों. के प्रति निकट होकर कृतिकर्म करना प्रविष्ट दोष है । परिपीडित दोषअपने दोनों हाथों से दो गोड़ों को स्पर्श करके क्रिया करना परिपीडित दोष हैं । दोलायितदोष- -भूला के सम्मान अपने को चला चलाकर क्रियाकर्म करना अथवा स्तुतियोग्य अर्हतादि परमेष्ठियों की स्तुति और किया कर्म संशय-युक्त होकर करना दोलायित दोष है । अंकुशित दोष- अंकुश के समान हाथ के अंगूठे बनाकर ललाट में रखना श्रंकुशित दोष है । कन्परंगितदोषबैठकर के कछवे के समान आगे चलना कच्छपरिंगित दोष हैं ।
मच्छुत्व' मोट्ठे वेवि दूधमेव य । भयसा चैव भयत्त' इड्डिगारवगारवं ॥ १३१ ॥
अर्थ- दोसवाड़ों के द्वारा वंदना करना प्रथवा मच्छके समान कटि भाग से पलटकर वंदना करना मत्सोद्वर्त नामक दोष है । मन से आचार्य के प्रति द्वेष धारण कर जो वन्दना करता है उसको मनो दुष्ट कहते हैं । अथवा संक्लेश मनसे वंदना करना मनो दुख दोष हो है । हाथों को आपस में बद्ध करना अथवा हाथ को पिंजड़े के समान कर दायें और बायें स्तन को पीड़ा करके अथवा दोनों गोड़ों को बद्ध करके वंदना करना वेदिका - बद्ध दोष है । मरणादिक सात भय से डर कर वंदना करना भय दोष है । जो गुरु आदि से भय धारण कर वंदना करता है वह विम्य दोष है । चातुर्वण्यसंघ मेरा भक्त होगा ऐसे अभिप्राय से वंदना करना ऋद्धिगारव दोष है अपना महात्म्य आसनादिकों के द्वारा प्रगट करके अथवा रस के सुख के लिए वंदना करना गौरव वंदना दोष है
तेरिपदं पडिरिपदं चावि पट्ट तज्जियं तथा ।
सदद्धं च होलिवं चावि सहा तिविलिदकु' चिदं ।। १३२ ॥
अर्थ - स्तेनितिदोष - श्राचार्यादि को मालूम न पड़े ऐसे प्रकार से वंदना करना, दूसरे न समझ सकेँ ऐसी वंदना, कोठरी के अन्दर रहकर वंदना करना स्तनित दोष है । प्रतिनिति दोष- देव गुरुग्रादिकों के साथ प्रतिकूलता धारण कर वंदना करना, प्रदुष्ट दोष अन्यों के साथ वैर, कलहादिक करके क्षमा याचना न करते हुए वंदनादिक क्रिया करना तर्जित दोष दूसरोंको भय उत्पन्न करके यदि साधु वंदन हो तो तर्जित दोष होता है | अथवा प्राचार्यांदिकों द्वारा गुली यादि से भय दिखाने पर यदि साधु वंदना करेगा तो तर्जित दोष होता