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(४) निवाय ( तीन बार बैठकर क्रिया करना ), ५ चतुः शिरोनति ( चारों दिशाओं में घूमकर सिर झुकाकर नमस्कार करना ), (६) द्वादश भावतं चारों दिशाओं में तीन-तीन आवर्त - हाथ जोड़कर तीन बार घुमाना ) ।
देव स्तवन के ३२ त्याज्य दोष-
भगवान की स्तुति करने में निम्न लिखित ३२ दोष हो सकते हैं उनको दूर करके निर्मल रूप से स्तुति करनी चाहिए। दोषों के नाम
मन में
(१) विनाविश्वास के दर्शन करना, (२) कष्ट के साथ दर्शन करना, (३) एकदम भीतर घुसकर करना, (४) दूसरे को डराते हुए करना, ( ५ ) शरीर को डुलाते हुए करना, (६) मस्तक को ऊंचा उठाकर करना, ( ७ ) कुछ और ही विचार करना, (८) मछली के समान चंचलता पूर्वक दर्शन करना, (६) क्रोध से युक्त होकर करना, (१०) दोनों हाथों को प्रमाद से जमीन में टेककर दर्शन करना, (११) मुझे देखकर और लोग भी दर्शन करेंगे, इस भाव से करना, ( १२ ) धन के अभिमान से करना, (१३) ऋद्धि गौरव के मद से करना, (१४) छिपकर अर्थात् अपने स्थान में बैठे-बैठे दर्शन करना, (१५) संघ के प्रतिकूल होकर करना, (१६) मनमें कुछ शल्य रखकर करना, (१७) कातने के समान अर्थात् दुःख के समान दर्शन करना, (१८) किसी दूसरे के साथ बोलते हुए करना, (१६) दूसरे को कष्ट देते हुए वरना, ( २० ) स्कुटि तानकर करना, (२१) ललाट की रेखाओंों को तानकर करना, (२२) अपने अंगोपांग की आवाज करते हुए करना ( २३ ) कोई श्राचार्यादि को प्राते हुए देखकर करना, (२४) अपने को वे देख न सकें ऐसे दर्शन करना, (२५) बेगार सी काटते हुए दर्शन करना, (२६) कोई उपकरण प्राप्त होने के बाद करना, (२७) उपकरण प्राप्त हो इस दृष्टि से करना ( २८ ) नियत समय से पहले ही दर्शन कर लेना, (२६) समय बीत जाने के बाद करना, (३०) मौन छोड़कर दर्शन करना, (३१) दूसरे किसी को इशारा करते हुए करना, (३२) यद्वा तद्वा गाना गाते हुए दर्शन करना । इन बत्तीस दोषों को टालकर दर्शन करना चाहिए ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य स्वामी का मूलाचार-श्ररणाठिदं च थट्टे व पविट्ठे परिपीडिदं ।
वोलाइयम कुसियं तहा कच्छवरिंगियं ॥ १३० ॥ अर्थ- -- अनादर दोष प्रदर के बिना जो क्रिया-कर्म किया जाता है वह अनाइत नामक दोष है । स्तब्ध – विद्यादि गर्व से युक्त होकर जो कर्म
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