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( २४४) है । अर्थात् यदि तुम नियमादिक क्रिया नहीं करोगे तो हम तुमको संघ से अलग करेंगे ऐसे क्रोध से डाटे जाने पर बंदना करना भी तजित दोष है। शब्द दोषशब्द बोलकर मौन छोड़कर जो वंदनादिक है वह शब्द दोष है।
अथवा, शब्द, के स्थान में, सटें, ऐसा भी पाठ है अर्थात् शाठ्यसे, मायाचारी से कपट से वंदना आदिक करना हिलित दोष है । प्राचार्य वचन के द्वारा परवश हो कर वंदनादिक करना प्रिविलित दोष है । कमर, हृदय और कंठ मोड़कर वंदना करना अथवा ललाट में त्रिवली करके वंदना करना कुचित दोष है। सकुचित किये हाथों से मस्तक को स्पर्श करके वंदना करना अथवा दो गोड़ों के बीच में मस्तक रखकर संकुचित होकर जो वंदना की जाती है वह कुचित दोष है । इस प्रकार प्रतीत दोषों का परिहार कर निदा और गहीं से युक्त होकर त्रिकरण शुद्धि से करने वाला प्रसिक्रमण १६ वां मूल गुण है ।
अतिक्रमण के भेद देवसिक, रात्रिक, गोचरिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक, युगांतर प्रतिक्रम, ईर्यापथिक, केशलोचातिचार, संस्तारातिचार, पंचातिचार, सर्वाचार, सर्वातिचार और उत्तमार्थ ऐसे प्रतिक्रमण के अनेक भेद हैं।
अनागत दोषों का परिहार करने के लिये की जाने वाली प्रत्याख्यान क्रिया २० को मूल गुण है।
शुभ परिणाम से प्रस्तादि परमेष्ठियों का स्मरण करना कायोत्सर्ग नामक २१ वां मूल गुण है । अर्थात् अंगुष्ठों में बारह अंगुल अंतर तथा एड़ियों में चार अंगुल का अंतर करके खड़ा होना तथा अपनी गर्दन को ऊंचा न कर समान वृत्ति से, रज्जु के आकार अपनी दोनों बाहुओं को लटकाकर खड़े होना चाहिये । अगर इस आसन से खड़े होने की शक्ति न हो तो पल्यंकासन में अपनी बाई जंघा र दाहिनी जंघा को रखकर और जानुकड़े पर वाम हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखकर ध्यान करना चाहिये अर्थात् पंच गुरु के गुण स्मरण पूर्वक जाप करना चाहिये । जैसे कि
करणंगळ कुसिदिरे मन-। मिरे नोसलोळ लोचनंगळुळ ळरेलुगुळ्दो पिरे वसनंदसनदोळों।
दिरे मद दरदंताचाल यदंतिरे तन ।। इस तरह पंचगुरु को स्मरण पूर्वक जाप करना चाहिये और एक जाप नि:श्वास पूर्वक मन में करना चाहिये .