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अब आगे कहे जाने वाली क्रियानों के उच्छ्वास काल के नियम को बतलाते हैं-हिसा व्रत में अगर कोई अतिचार लग जाय तो एक सौ आठ जाप करना चाहिये। देवसिक में १०८, रात्रिक में उसका प्राधा ५४ करना चाहिये और पाक्षिक में ३०० सौ, चातुर्मासिक में ४०० सो, सवत्सरिक में ५०० सौ, गौचपिक में लाते समय तथा ग्राम से ग्रामांतर को जाते समय या अरहंत के दर्शन करते समय तथा किसी मुनि की निषिधिका का दर्शन करते समय, एवं उच्चार प्रश्न करते समय पच्चीस श्वासोच्छवास मात्र कायोत्सर्ग करना, ग्रन्थ प्रारम्भ में तथा उसकी परिसमाप्ति में, स्वाध्याय करते समय तथा निष्ठापन में, देवता स्मरण में जहां जहां इस प्रकार क्रिया हो वहां सत्ताईस उच्छ्वास जप मन ही मन में करना चाहिये ।
तथा इसी तरह शीतोष्ण दंश-मशकादि परीषहों को सहन करते हुए त्रिकरण शुद्धि से जिन-प्रतिमा के समान कायोत्सर्ग में रहकर जो अनुष्ठान कहा हुया है उसके प्रमाण के अंत में हलन चलन न करते हए एकाग्रता से निरंजन नित्यानंद स्वरूप के समान धर्मशुक्ल का ध्यान स्मरण करना चाहिये ।
कायोत्सर्ग के ३२ दोष १-किसी दीवाल के सहारे खड़े होना कुड्याश्रित नामक दोष है । २ वाय के द्वारा हिलती हुई लता के समान शरीर को हिलाते रहना लतावक्र नामक दोष है । ३ किसी खम्भे के सहारे खड़े होना अथवा खम्भे के समान खड़े होना स्तंभावष्टंभ नामक दोष है । ४ शरीर के अवयवों को संकोच कर खड़े होना कुचित नामक दोष है। ५ अपनी छाती को आगे निकालकर इस प्रकार खड़े होना जिससे छाती दिखाई दे, वह स्तनेक्षा दोष है। ६ कौवे के समान इधर उधर देखते रहना काक नामक दोष है । ७ शिर को हिलाते जाना शीर्षकंपित नामक दोष है। ८ जिस बैल पर जुवा रक्खा जाता है वह जिस प्रकार अपनी गर्दन को आगे को लम्बी कर देता है उसी प्रकार जो गर्दन को आगे की ओर लम्बा करके खड़ा हो जाता है वह युगकंधर नामक दोष है । ६ कायोत्सर्ग में भकुटियों का चलाते जाना भूक्षेप नामक दोष है। १० मस्तक को ऊपर उठाकर कायोत्सर्ग करना उत्तरित नामक दोष है । ११ कायोत्सर्ग में उन्मत्त के समान शरीर को घुमाते रहना उन्मत्त नामक दोष है । १२ पिशाच के समान कांपते रहना पिशाच नामक दोष है । १३ पूर्व दिशा की ओर देखना। १४ अग्नि दिशा की ओर देखना । १५ दक्षिण दिशा की ओर देखना। १६ नैऋत्य दिशा की ओर देखना । १७ पश्चिम दिशा की