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भोर देखना । १८ वायव्य दिशा की ओर देखना । १६ उत्तर दिशा की ओर देखना । २० ईशान दिशा की ओर देखना । इस प्रकार ग्राठों दिशाओं की यो देखना आठ दोष कहे जाते हैं । २१ गर्दन को नीचा करके खड़े होना ग्रीवामन नामक दोष है । २२ गुंगे मनुष्य के समान मुख और नासिका को विकारों से इशारा करता मूक-संज्ञा नामक दोष है । २३ उंगलियों के द्वारा गिनना अंगुलो बालन नामक दोष है । २४ । थूकना निष्ठीव नामक दोष है । २५ लगाम लगाये हुये घोड़े के समान दांतों को घिसना शिर को हिलाना आदि को खलिनित दोष कहते हैं । २६ भीलिनी के समान हाथों से गुद स्थानों को ढककर खड़े होना, शवरी गुदयूहन नामक दोष है । २७ कैथ के समान मुट्टियों को बाँधकर खड़े होना कंपित मुष्ठि नामक दोष है । २८ गर्दन को ऊंची करके खड़ा होना नीवोन्मत्त नामक दोष है । २६ अपने पैरो की सांकल से बंधे हुए के समान करके खड़े होना श्रृंखलित नामक दोष है । ३० मस्तक को रस्सी तथा माला आदि के सहारे रखकर खड़ा होना मालिकोढन नामक दोष | ३१ इधर उधर से शरीर का स्पर्श करना स्वांग स्पर्श नामक दोष है । ३२ घोड़े के समान एक पैर को ऊंचा करके खड़े होना घोटकानची नामक दोष है । इस प्रकार कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष हैं । तथा इनके सिवाय और भी दोष हैं उनको छोड़कर कायोत्सर्ग करना चाहिये। यह इक्कीसवाँ मूल गुरण है ।
वस्त्र वल्कल पत्रादि से निर्ग्रन्थपने अपनी नग्नता] को नहीं छिपाता वस्त्रत्याग तेईसवां मूलगुण है ।
प्राणी तथा इन्द्रिय संयम के निमित्त स्नान न करना २४ वां मूलगुण है । समान भूमि, शिला, लकड़ी का पाटा, घास की चटाई इत्यादि पर धनुष के श्राकार सोना २५ व मूलगुरग है ।
अपनी उंगली के द्वारा दांतों को न घिसना २६ वां मूलगुण है ।
खड़े होकर भोजन करना २७ वां मूल गुण है ।
दिन में एक बार भोजन करना एकमुक्त नामक २८ वां मूलगुण है । अब आगे पांच महाव्रतों को स्थिर करने के लिये उनकी पांच भावनाओं को बतलाते हैं
अर्थ- वाग्गुप्ति १, मनोगुप्ति २, ईर्ष्या समिति ३, आदाननिक्षेपण समिति ४, श्रालोकित पान भोजन ये पांच पांच अहिंसा व्रत की भावनायें हैं । १ कोव को त्यागना, २ लोभ को त्यागना, ३ हास्य को त्यागना, ४ भय