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________________ ( २३५ ) का कष्ट नहीं देना संयम धर्म है । संयम धर्म को निर्मल रखने के लिए भावशुद्धि शरीर शुद्धि, विनय शुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयन सन शुद्धि वाक् शुद्धि तथा भिक्षा शुद्धि ये आठ प्रकार की शुद्धियां हैं । अनशनादिक बहिरङ्ग तथा प्रायश्चित्त श्रादि अन्तरङ्ग तपों का आचरण करना तप धर्म है । कः पूरयति दुःपूरमशागतं चिरादहो । चित्रं यत्क्षरणमात्रेण त्यागेनैकेन पूर्यते ॥ २२ ॥ अर्थ -- कठिनाई से पूर्ण होने वाले इस प्राशा - रूपी गढ़े को संसार में कौन पूर्ण कर सकता है? कोई नहीं। किंतु आश्चर्य की बात है कि एक त्याग धर्म के द्वारा ही वह ग्राशा का खड्डा क्षण मात्र में पूर्ण हो जाता है । जिस तरह हजारों नदियों के जल से समुद्र की तृप्ति नहीं होती, असंख्य वृक्षों की लकड़ी से जिस तरह अग्नि तृप्त नहीं होती, इसी प्रकार संसार के समस्त पदार्थों से भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती। ऐसा विचार करके परमाणु मात्र भी पर-पदार्थ अपने पास न रखकर उनका त्याग कर देना त्याग धर्म है । अन्य पदार्थों की बात तो दूर हैं, अपना शरीर तथा शरीर से उत्पन्न हुआ पुत्र पौत्र श्रादि परिवार भी आत्मा का अपना नहीं है, ऐसा विचार करके किसी भी पदार्थ में ममत्व भाव न रखना श्राकिञ्चन्य धर्म है । : करण चविहिंदिकदकारिव श्रमोदयं चैव जोगे छग्धरण मेत्तो बम्भाभंगाहु प्रक्खसंचारे ॥ ८ ॥ अर्थ-स्त्री, देवी, मादा पशु ( तियंचिनी) तथा अचेतन स्त्री ( मूर्ति चित्र आदि ) ४ प्रकार की स्त्रियों से सार्शन, रसना, घाण, नेत्र, कर्णं तथा मन इन ६ इन्द्रियों द्वारा, कृत, कारित, अनुमोदना तथा मन वचन काय योगों द्वारा (यानी ६ इन्द्रिय x ३ योग x ३ कृत कारित अनुमोदना = ५४ भंगों द्वारा x ४ प्रकार की स्त्रियां = २१६) विषयवासना का त्याग करके अपने आत्मा में रत रहना ब्रह्मचर्य धर्म है । अष्टाविंशति लगुणाः ||४०|| अर्थ-मुनियों के २८ मूलगुण होते हैं । ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रिय विजय ६ आवश्यक, सात शेष गुण - १ स्नान का त्याग, २ दन्त धावन का
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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