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( २१७ ) चारों प्रकार के आहार तथा विषय कषाय का परित्याग करना अनशन या उपवास तप है। एकग्रास, दो ग्रास क्रमसे घटाते बढ़ाते हुए चान्द्रायण प्रादि व्रत करना, भूख से कम भोजन करना अवमौदर्य या ऊनोदर सप है । पर गली, मुहाना का अन्य दामों परिग्रह करने वाले आदि की अटपटी पाखड़ी करना व्रतपरिसंख्यान तप है। घी, तेल, दूध, दही, खाड नमक छह रसों में से सब रसों का या १-२ आदि रस का त्याग करना रसपरित्याग सप है । एकान्त स्थान में, भूमि, तस्त, खाट ग्रादि सोने आदि का नियम करना विविक्त शैयासन तप है। कुक्कुट प्रासन, खड्गासन भादि प्रासन लगाकर, प्रतिमा योग आदि रूप से ध्यान करना कायक्लेश तप है 1 ये ६ बहिरंग तप हैं।
प्रत आदि में कुछ दोष लग जाने पर उसका दंड लेना गुरु से और गुरु न होने पर अर्हन्त प्रतिमा के समक्ष स्वयं दण्ड लेना प्रायश्चित्त तप है । पालोचना प्रतिक्रमण प्रादि भेद प्रायश्चित के हैं । सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय धारकों का विनय करना विनय तप है । आचार्य, उपाध्याय, साधु आदि नती जनों की सेवा करना वैयावृत्य तप है । ज्ञानाभ्यास, शास्त्र पढ़ना पढ़ाना, सुनना, पाठ करना आदि स्वाध्याय तप है। पापों को बाहरी तथा अन्तरंग से छोड़ना व्युत्सर्ग तप है। पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ये ध्यान करने की चार पद्धति हैं उसके अनुसार चित्त को एकाग्र करना ध्यान तप है । ये ६ अन्तरङ्ग तप हैं। इस तरह ६ बहिरंग, ६ अंतरंग-समस्त १२ तप हैं । इनमें से प्रतिमा योग के सिवाय अन्य समय कायक्लेश तप गृहस्थ के लिए निषिद्ध हैं ।
जिन स्त्री पुरुषों में देव शास्त्र गुरु की विनय भक्ति, ज्ञान का अभ्यास, शास्त्र स्वाध्याय, दान शक्ति अनुसार प्रत नियम आदि नहीं हैं वे मनुष्य शरीर पाकर भी पशुओं के समान हैं।
ज्ञानद सत्परिणाम । वानव रूचि समय भक्ति तत्वविचारं । जनंगिविल्लादिदोडे । मौन वोळुण्यंते पशुवेदनेय निदाना ।१३२॥
अर्थ-जिस जैन धर्मानुयायी स्त्री पुरुष को विवेक नहीं, दान देने में रुचि नहीं, देव शास्त्र गुरु की भक्ति नहीं, तत्व का विचार नहीं, वह मौन पूर्वक घास चरने वाले पशुओं के समान हैं।
क्षत्रिया द्विविधाः ॥२६॥ अर्थ-क्षत्रिय के दो भेद हैं १ जाति क्षत्रिय, तीर्थ क्षत्रिय । ब्राह्मण,