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________________ { २१६) नन्दीश्वर द्वीप में जाकर प्राषाढ़, कार्तिक, फागुन मास के अन्तिम दिनों में जो देव इन्द्र आदि पूजा करते हैं सो प्राष्टान्हिकपूजा है । स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, ये पाठ द्रव्य लेकर मंदिर में प्रतिदिन पूजा करना दैनिक पूजा है। अपनी शक्ति अनुसार द्रव्य खर्च करके मन्दिर बनबाना, प्रतिमा निर्माण कराना, प्रतिष्ठा कराना, मन्दिर की सुव्यवस्था करना, मंदिर की व्यवस्था के लिये जमीन, मकान, गांव आदि दान करना पूजा के उपकरण देना आदि दैनिक पूजा में सम्मिलित है। अर्थानि षटकर्माणि ॥२७॥ अर्थ-आर्य पुरुषों के धन-उपार्जन के ६ कर्म हैं । १ असि (सेना प्रादि में नौकरी आदि से अस्त्र शस्त्र द्वारा धन कमाना), २ मसि ( लिखने पढ़ने के द्वारा आजीविका करना), ३ ऋषि (स्त्रेती बाड़ी करना), ४ बाणिज्य (व्यापार करना) ५ पशु पालन (गाय, मैस. घोड़ा आदि पशुओं का व्यापार करना), ६ शिल्प (वस्त्र बुनाना आदि काला कौशल से नाजीविका करना)। हीदतुबमाः ।। अर्थ-दत्ति (दान) चार प्रकार है-~१ दयादत्ति, २ पादत्ति, ३ समदत्ति, ४ सर्व दत्ति । समस्त जीवों पर दया करदा, दीन दुखी अनाथ प्राणियों को दया भाव से भोजन वस्त्र आदि देना दयादत्ति है। रत्नत्रय धारक, संसार से विरक्त, संयम आराधक मुनि आयिका आदि को भक्तिभाव से शुद्ध निर्दोष आहार, पौषध, शास्त्र, आबास देना और अपने प्रापको कृतार्थ मानना पात्रदत्ति है। अपने समान सदाचारी धार्मिक योग्य वर को अपनी कन्या देना, साधमियों को भोजन कराना आदि समयत्ति है। घर बार छोड़कर दीक्षा लेते समय या समाधि मरण के समय अपनी समस्त सम्पत्ति धर्मार्थ में दे डालना अथवा पुत्र आदि उत्तराधिकारी को प्रदान करना सर्वदत्ति है। यह तीसरा आर्यकर्म है। तत्वज्ञान का पढ़ना, पढ़ाना 'स्वाध्याय' नामक चौथा प्रार्य कर्म है। पांच अणुक्तों का आचरण करना 'संयम' नामक पांचवाँ आर्य कर्म है।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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