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उसकी "तू दानियों में प्रसर है और तेरी जगत् में सर्वत्र कीर्ति फैल गई है," ऐसा कहना पूर्वसंस्तुति दोष है । और जो दाता आहार देना भूल गया हो उसको "तू पूर्व काल में महान दानपति था, अब दान देना क्यों भूल गया है, ऐसा उसको सम्बोधन करना यह भी पूर्व संस्तुति दोष है । कीर्ति का वर्णन करना और स्मरण करना यह सब पूर्व संस्तुति दोष है । पश्चात्संस्तुति दोष
श्राहारादिक ग्रहण करके जो मुनि दाता की "तू विख्यात दान - पति है, तेरा यश सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ है" ऐसी स्तुति करता है उसको पश्चात् - संस्तुति दोष कहते हैं । किसी गांव के दाता को खबर देकर उसके यहां श्राहार करना, निमन्त्रण दोष है । ज्योतिष ग्रह प्रादि को बतलाकर आहार लेना, अपने आप ही अपनी कीति ख्याति इत्यादिक कहवार प्रहार लेना, दाता के मन में दान देने की भावना उत्पन्न कर के आहार लेना; लाभ दिखाकर आहार लेना, मान करके प्रहार करना, माया से प्रहार करना, लोभ करके लेना, आहार के पहले दाता की प्रशंसा करके बाद में उसके घर में आहार लेना, भोजन करने के बाद दाता की स्तुति करके उसे अपने चश कर लेना, विद्या यन्त्र-मन्त्रादिक को देकर अपने वश कर लेना, केवल यन्त्र से अपने वश कर लेना, वैद्यक अर्थात् दवाई इत्यादिक दाता को बतला - कर आहार करना इत्यादि उत्पाद दोष हैं ।
शंकित दोष:
श्राहार पानादिक लेने वाले आहार में शंका करके प्रहार लेना शंकित दोष है । प्राक पानी से बरतनादिक को धोकर उसमें अन्न परोस कर साधु को देना, अशन भात, रोटी श्रादिक, दही, दूध आदिक, खाद्य-लड्डू श्रादिक, स्वाद्य- एला, लवंग, कस्तुरी कंकोलादिक, "ये पदार्थ मेरे लिए भक्ष्य हैं प्रभवा अभक्ष्य हैं" ऐसा मन में संशय उत्पन्न होने पर यदि साधु आहार करेंगे तो उनको शंकित प्राहार नामक दोष होता है अथवा आगम में ये पदार्थ भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं, ऐसा संशय युक्त होकर जो साधु आहार करता है उसको शंकित दोष होता है ।
प्रक्षिप्त दोष:- घी, तेल आदि, स्निग्ध पदार्थ से लिप्त हाथ से अथवा स्निग्ध तेलादिक से लिप्त कलछी अथवा पात्र से मुनियों को श्राहार देना प्रक्षिप्त दोषों से दूषित होता है । इस दोष का मुनि सदा त्याग करें। ऐसे आहार में सूक्ष्म सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न होते हैं ।