SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२४ ) निक्षिप्त दोष का स्वरूपः - सचित्त पृथ्वी, सचित्त पानी, सचित्त अग्नि, सचित्त वनस्पति, बोज और त्रस जीव द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिद्रिय जीवों पर रक्खा हुआ पाहार मुनियों को ग्रहण योग्य नहीं है। सचित्तपुश्व्यादिक के छः भेद हैं। अंकुर शक्ति योग्य गेंहू आदि धान्य को बीज कहते हैं । हरित--अम्लान अवस्था के तृरण, पर्ण आदि को हरित कहते हैं । इनके ऊपर स्थापन किया हुअा अाहार निक्षिप्त दोष सहित होता है । अथवा अप्रासुक पृष्त्र्यादिक कार्यों पर रक्खा हुमा आहार मुनियों को अयोग्य है । पिहित दोष:--जो आहारादिक वस्तु सचित्त से ढकी हुई है अथवा अचित्त भोजन किसी वजनदार पदार्थ से ढका हुआ है उसके ऊपर का आवरण हटाकर मुनियों को देना पिहित दोष है। धायक दोष: जो बालक को प्राभूषणादि से सजाती हैं, उसको दूध पिलाती हैं और धाय का काम करती हैं दे पाहार दान में प्रयोग्य हैं, जो मद्यपान में लम्पट है, जो रोग से ग्रस्त है, जो मृतक को स्मशान सल आया है और जिसको मृतक का सूतक है, जो नंपुसक है, जो पिशाचग्रस्त है, अथवा वातादिक रोग से पीड़ित है, जो वस्त्रहीन है अथवा जिसके एक ही वस्त्र है, जो मल विसर्जन करके आया है तथा जो मूत्र करके आया है, जो मूछित है, जिसको वांति हुई है, जिसके शरीर से रवत बह रहा है, जो प्राजिका है,अथवा जो लाल रंग के वस्त्र धारण करने वाली रक्त-पाटिका श्रादि अन्य धार्मिक संन्यासिका है, जो अंग मर्दनक-स्नान करती है, ऐसी स्त्री और पुरुष पाहार देने योग्य नहीं हैं । अति वृद्धा हो, पान तमाकू खाई हो, क्रोध से प्राई हो, अंगहीन हो, या भीत का सहारा लेकर बैठी हो, उन्मत्ता हो, झाडू देते-देते आई हो, "यह अग्नि है" ऐमा अपने मुख से कहती हुई पा रही हो, दीवाल लीपती हो, है ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य जाति के अलावा अन्य किसी के हाथ का भोजन दोषी समझकर आहार त्याग कर देना चाहिए। अागे साधुओं के भोजनों के अन्तराय को कहते हैंमौनत्यागे शिरस्ताड़े मार्गे हि पतिते स्वयम् । मांसामेध्यास्थिरक्ताविसंस्पृष्टे शवदर्शने ॥४॥
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy