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( ३२६) है। तथा दूर और समीप से ठीक सुनाई देनी वाली होती है, अतः ऐसी अनुपम - जिन वाणी हम सबकी रक्षा करे ।
सिद्धि बुद्धिर्जयो वृद्धिज्ञिः पुष्टिस्तथं व च।
ओंकारश्चाथ शब्दश्च नान्दी मंगलवाचकः ॥
सिखि, बुद्धि, जय, वृद्धि, राजपुष्टि, ओंकार, अथ शब्द तथा नान्दी ये पाठ मंगल-वाचक कहलाते हैं।
हेतौ निदर्शने प्रश्ने स्तुतौ कण्ठसमीकृते। अनन्तर्योऽषिकारस्ते मांगल्येतयिष्यते ।।
इस शास्त्र में कथित जो मंगलार्थ शब्द है वह अन्तराधिकाकार्थ निमित्त कहने से तथा मंगल निमित्त फल का परिणाम कर्ता है प्रादि अधिकारों को कहने के पश्चात् प्राचार्य को शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए । इस न्याय के अनुसार मंगलाचरण करने के बाद न्याय और नय को न जाननेवाले अज्ञानी जीवों के हितार्थ हेयोपादेय तत्वों का परिज्ञान कराने के लिए द्रव्यानुयोग को कहते हैं ।।
अथ षड् द्रव्यारिंग ॥१॥
अर्थ-चरणानुयोग कथन के पश्चात् जीव, अजीव, धर्म; अधर्म द्रव्य, माकाश और काल ये छः द्रव्य हैं। यहां प्रश्न उठता है कि इन छहों का नाम 'द्रव्य' क्यों पड़ा ? उसका उत्तर यह है कि
"द्रवतीति द्रव्यम्, त्यति गच्छति परिणामं इति
यानी-प्रतीत अनन्तकाल में इन्होंने परिणमन किया है और. वर्तमान तथा अनागत काल में परिणाम करते हुए भी सत्ता लक्षण वाले हैं, तथा रहेंगे उत्पाद व्यय प्रीश्य से युक्त हैं, एवं गुण-पर्याय सहित होने के कारण इन्हें द्रव्य कहते हैं । उपयुक तीनों बातों से पृथक द्रव्य कभी नहीं रहता।
अब द्रव्यों का लक्षण कहते हैं:
१-ज्ञान दर्शन उपयोगी जीव द्रव्य है । २... वर्ण रस गंध स्पर्श से गमन पूरण स्वरूप होने के कारण पुद्गल द्रव्य है। ३-धर्म द्रव्य प्रमूर्त, अनादिनिधन, अगुरुल घुमय तथा लोकाकार है । अन्तरंग गमन शक्ति से युक्त जीव पुद्गलों के गमनागमन में बहिरंग सहकारी है। जैसे पानी मछली प्रावि जलचर जीवों के गमनागमन के लिए सहकारी कारण होता है उसी प्रकार धर्म द्रव्य बहिरंग सहकारी कारण होता है । वह अपना निज स्वरूप छोड़कर कभी पर-रूप नहीं होता । यह प्रर्थपर्याय है, व्यम्जन पर्याय नहीं । 'अर्थ-पर्याय