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वारसविहस्य नंतर बाहिरे कुशलविट्टि । रविविरण वियहोहदि सज्जायसम्मत्तमोक्कम्मं ॥ २५ ॥ दयादिकलो पठेदि पुत्तंथ सिक्खलोये । - लसमाहि प्रसभायं कलहं वा इंदियोगंच ॥ २६ ॥ अष्टम्यामध्ययनं गुरुशिष्यद्वयवियोगमाहेति ।
कलह्स्तु पौरिंगमास्यां करोति विघ्नं चतुर्दश्यां ॥८५॥ कृष्णाचतुर्दश्यां यदि श्रधीयते साधवोध्यमावास्यां । विद्योपसविभयो विवासवृत्ति प्रयांति सर्वेप्यचिरात् ॥ ८६ ॥ मध्याह्न जिनरूपं नाशयति संध्ययोश्च व्याधिदं । मध्यमरात्रौ पठिते तुष्य तोपप्रियत्वमुपयान्ति ॥ ८७ श्रष्टमी त्युपाध्यायं शिष्यं हंति चतुर्दशी । विद्यां पंचदशी हंति सर्वहि प्रतिपद्धरेत् ॥ ८८ ॥
इन इलोकों का ग्रथं सरल होने के कारण तथा ग्रन्थ बढ़ जाने के भ से छोड़ दिया गया है ।
इति श्री माघनंद्याचार्य विरचित शास्त्र सारसमुच्चय अन्तर्गत चरण । - तुयोग का कथन समाप्त हुआ ।
द्रव्यानुयोग
सिद्धान्नत्वा प्रवक्ष्यामि द्रव्यानुयोगसंज्ञकम् । मङ्गलादिप्रसिद्ध्यर्थं स्वात्मोत्थसुखसिद्धये ॥
अब इसके पश्चात् मंगलादि - प्रसिद्ध आत्म-सुख - सिद्धि के लिए सिद्धों को नमस्कार करके में द्रव्यानुयोग को कहूँगा ।
गम्भीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितम् । कण्ठोष्ठादिवचोनिमित्तरहितं नो वातरोधोद्गतम् ॥ स्पष्टं तत्तदभीष्टवस्तुकथकं निःशेष भाषात्मकमे । बूरासन्नसम निरुपम जैनं वचः पातु वः ||
श्री जितेन्द्र भगवान को वाणी गम्भीर, मधुर अत्यन्त मनोहर दोषरहित, हितकारी, कण्ठ श्रोष्ठ तथा तालु आदि की क्रिया से रहित, वायु से न रुकनेवाणी स्पष्ट, अभीष्ट वस्तु को कहने वाली और संसार की समस्त भाषाओं से परिपूर्ण
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