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श्रवगाहना वाला है । ये उत्कृष्ट अवगाहना वाले पहले चार जीव स्वयम्भूरमण [अंतिम] द्वीप में होते हैं ।
किन्हीं आचार्य के मत से पृथ्वीकायिक वनस्पतिकाधिक तथा विकलत्रय जीवों के सासादन गुण-स्थान भी होता है । सासादन गुणस्थान में भी मरण होता है ।
त्रिविधो योगः ॥ ३३॥
अर्थ-मन वचनं तथा शरीर को क्रिया से जो आत्मा में हलन चलन होती है जिससे कि कार्मण वर्गरणाओं का ग्राकर्षण [ श्रास्रव ] होता है वह योग है, उसके तीन भेद हैं-१ मन, २ वचन, ३ काय 1
मनयोग के ४ भेद हैं-१ सत्य, २ असत्य मिश्रित रूप ] ४ श्रनुभय [ जिसे न सत्य कह सकें, न वचन योग भी चार प्रकार का है—१ सत्य,
३ उभय [सत्य असत्य
सत्य ] |
२ असत्य ३ उभय, ४
अनुभय ।
काय योग [शारीरिक योग] ७ प्रकार हैं- १ ग्रौदारिक [ मनुष्य पशुओं का शरीर ], २ औदारिक मिश्र [ अधून- अपर्याप्त प्रदारिक शरीर ] ३ वैकिक [देव नारकी शरोर] ४ वैकियिक मिश्र [ अधूरा वैकियिक शरोर], ५ आहारक [ श्राहारक ऋद्धिधारक मुनि के मस्तक से प्रगट होने वाला शरीर ] ६ आहारक मिश्र [ पर्याप्त आहारक शरीर ] ७ कार्मारण काययोग [ विग्रह गति में ] । इस तरह योग के भेद हैं ।
पंचदशविधाः || ३४॥
अर्थ-योग १५ तरह के हैं । सत्य मन, प्रसत्य मन, उभयमन, अनुभय मन ऐसे मनोयोग के चार भेद है। सत्य वचन, असत्य वचन, सत्यासत्य वचन, और अनुभव ये वचन के चार भेद हैं। श्रदारिक, श्रदारिक मिश्र, वैक्रियिक, वैrियिक मिश्र, श्राहारक आहारक मिश्र, और कार्मारण काययोग ये काय योग के सात भेद हैं । ये सब मिलकर १५ योग होते हैं। इनमें असत्य उभय वचन सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक के मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीण - कषाय पर्यन्त होते हैं । सत्य मन, सत्य वचन, अनुभय मन अनुभव वचन संज्ञो पर्याप्तक से लेकर संयोग केवली तक होता है । आदारिक काय योग स्थावर काय से लेकर संयोग केवलो तक होता है । श्रीदारिक मिश्र योग मिथ्यादृष्टि, सासादन पुंवेद, असंयत, कपाट सयोगो इन चार गुणस्थानों में होता है । वैकियिक में पहले चार गुणस्थान, वैऋियिक मिश्र में तीन (मिश्र
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