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खव्व पंच अत्थी सत्तवि तच्चाय एवपयत्थाय । रायशिक्खेवपमारणं दिव्वझणी भण्इ भव्बारणं ॥४३॥ जिगवंदणा पयट्ठा पल्लासंखेज्ज भागपरिमाणं ।
चित तिविविह जीवा इक्केके समवसरणेसु ॥४४॥ अर्थ-अठारह महाभाषा, सात सौ छोटी भाषा तथा संशी जीवों को और भी अक्षरात्मक (अक्षरों से लिखने योग्य), अनक्षरात्मक भाषाएं हैं उन सभी भाषाओं में तालु, दांत, मोठ, कण्ठ को बिना हिलाये चलाये भगवान की कारणी भव्य जीवों के लिये प्रगट होती है । भगवान की वह दिव्य ध्वनि स्वभाव से (तीर्थकर प्रकृति के उदय से बचन योग से, बिना इच्छा के) असवलित (स्पष्ट) अनुपम तीनों सन्ध्या कालों में है मुहर्त तम निकलती है और १ योजन तक जाती है।
शेष समय में गणधर, इन्द्र तथा चक्रवर्ती के प्रश्न करने पर भी दिव्य ध्वनि सात भंगमय खिरती है ।
__ स्यात्, अस्ति, स्यात् नास्त्,ि स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् प्रवक्तव्य, स्यात् अस्ति प्रवक्तव्य, स्यात् नास्ति प्रवक्तव्य और स्यात् आस्ति नास्ति अबक्तव्य' ये सात भंगी पदार्थों में आदेश (जिज्ञासा) के वश से होती हैं।
छह द्रध्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप्प प्रादि भविष्य भगवान की दिव्य ध्वनि भव्य जीवों को प्रतिपादन करतो है।
जिनेन्द्र भगवान की बन्दना के लिये समवशरण में आये हुए अनेक प्रकार के जीव पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । समवशरण के प्राकार वेदिका और तोरण की ऊंचाई भगवान के शरीर से चार गुणी होती है।
(कनड़ी छंद) मिलिर्व पताके इनेसेघव, ट्टले इन्देशमानमप्प विस्तृत वेदी । कुल मसमानं विस्तृत, विलसत् प्राकारमुनिरंतर मेसेगुं ॥१८॥
अर्थात् मानस्तंभ, प्रासाद, चैत्यालय, चैत्यवृक्ष, ध्वज दंड, गोपुरद्वार, कृतगिरि, नवस्तुप और लक्ष्मी मंडप ये सभी १२ गण देह के प्रमाण हैं । और भीतर तथा बाहर के सम्पूर्ण, गोपुरों में नव निधि से शोभित उचित अष्ट, मंगल द्रव्य वगैरह प्रत्येक १०० होते हैं। नैसर्प, पिंगल, भाजुर, मारणपक, संद, पांडुक, कालश्री, बरतत्व, तथा तेजोद्भासि महाकाल ये नव निधियाँ हैं।
अष्ट मंगल द्रव्य गाथा--- - अर्थ-तीन छत्र, चमर, दर्पण, भृगार, पंखा, पुष्प माला व्रतकलश,