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________________ (६) स्वस्तिक (साथिया) झारी ये आठ मंगल द्रव्य हैं । और धूलि प्राकार के बाहरी तरफ १०० मरकत मणि के बंदन वार ( तोरण ) लाइन से प्रागे सौ सौ होती है । और उमका विस्तार गव्यूति प्रमाण होता है । वीथी (गली) में धूलि प्राकाररों से गंधर्व व्यंतर देवों की वेदिका तथा स्फटिकमय दीवाल है। इस प्रकार विविध भाँति के अतिशयों से युक्त समवशरण में--- श्लोक-- तत्रच मर्जत्युन्म च विद्वेषो नैव मम्मथोन्मावः। रोगान्तक बुभुक्षा पीडाच न विद्यते काचित् ॥ अर्थ-जन्म, मरण, कोप, कामोद्क, रोग, व्यसन, निद्रा, भूख, प्यास इत्यादि पीड़ा जीवों को नहीं होती। और अभव्य तथा असैनी जीव समवशरण में कभी नहीं जाते । मिथ्या--दृष्टि जीवों को समवशरण में प्रवेश करते ही सम्यग्दर्शन हो जाता है । गूगा समवशरण में जाते ही बोलने लगता है, अंधा देखने लगता है, बहरा समवशरण में जाकर सुनने लगता है। लूले लंगड़े समवशरण में जाते ही ठीक तरह से चलने लगते हैं। पागलों का पागलपन वहां जाकर दूर हो जाता है, कोढ़ी जैसे महारोगी का शरीर समवशरण में प्रवेश करते ही निरोग होकर सुन्दर बन जाता है। विष वाले प्राणी समवशरण में जाते ही निर्विष हो जाते हैं। व्याधि-पीड़ित जन समवशरण में जाते ही सर्व व्याधियों से मुक्त हो जाते हैं। अग ( घाव-जख्म ) वाले लोग यहाँ जाकर प्रण से रहित हो जाते हैं । आपस के विरोधी जीव समवलरण में जाते ही मित्र के समान हो जाते हैं, जिन जीवों का आपस में विरोध होता है और सदा लड़ते झगड़ते हैं चे यदि समवशरण में पहुंच जाये तो उसी समय विरोध छोड़ कर मित्र बन जाते हैं। सिंह, और हाथी, बिल्ली और चूहा, मेंढक, और सर्प इत्यादि जाति-विरोधी जीव भी अपने अपने वैर को छोड़ कर आपस में बच्चों के समान प्रेम करने लगते है। और पुन:--- श्लोक कानड़ी में । . नुत धर्म कथन मल्लदे हितकर संदर्म कार्यमल्लदे विपुलो। न्नत धर्म चिन्तेयल्लदे शतविवुधधपन सभेयोमिल्लुळ धेनु । अर्थ-भगवान के समवशरण में जितने भी जीव बैठे होते हैं ये अपने सम्पूर्ण विकारों से रहित होकर सद्धर्म कथाओं को सदा चिन्तवन करते रहते हैं। सौ इन्द्रों से बन्दनीय त्रिभुवन नाथ भगवान के समवशरण में धर्म कथा या उत्तम ..धर्म कार्य के सिवाय अन्य कोई कार्य नहीं होता।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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