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(४०) श्लोक कानड़ी मेंचित्रातपत्रवि पत्र बनस्थाळियमिलिसे गगन देसेयं । चित्रसे तिरीट किरणं, दानिशत् विवशपतिगळंतेळतंदर ॥२०॥ यणगन्धाक्षत्कुसुम्दि एनुमचरुदीपधपफलसंकुल दि ॥२१॥ जिनपतिपूजोत्सवकर मादि ब्वात्रिंशतदिन्द्र रन्तकतवर ॥२२॥
उपर्युक्त समवशरण की विभूति भगवान के उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से होती है। ऐसे जिनदेव की आराधना भव्य जीवों को सदा करते रहना चाहिए।
सूत्र
अनंत चतुष्टयमिति ॥१४॥
अर्थ-अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य ये अनंत चतुष्टय हैं।
१ जिस ज्ञान का अन्त नहीं है उसे अनंत ज्ञान कहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान व्यवहार नय से लोकालोक को प्रत्यक्ष रूप से जानता है और निश्चय नय से अपने शुद्धात्म स्वरूप को जानता है।
२ जिस दर्शन का अंत नहीं है या विनाश नहीं है और जो व्यवहार नय से लोकालोक को प्रत्यक्ष रूप से देखता है तथा जो निश्चय नय से शुद्ध स्वरूप को देखता है वह अनंत दर्शन है।
३ जिस सुख का अंत नहीं है वह अनंत सुख या अतीन्द्रिय सुख है।
४ जिस वीर्य का नाश नहीं है वह अनंत वीर्य है । वही अनंत सबल और वहीं अनंत शक्ति है । उपर्युक्त अनन्त चतुष्टयों के धारक चौबीस तीर्थंकर परम देवों ने अपने शेप सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करके अनंत गुण परिपूर्ण शुद्धात्म भावना के फल को प्राप्त किया तथा ऐसे सिद्ध-साध्य, बुद्ध बोध, कृत कृत्य, इत्यादि विशेषणों से मुक्त उन सिद्ध परमेष्ठियों को मैं नमस्कार करता हूँ।
इस प्रकार कहा हुआ भी है कि-- ____ शुद्ध चतन्यपिडाय सिद्धाय सुखसंपदे ।
धिमलागमासाध्याय नमोस्तु परमेष्ठिने ॥ इस प्रकार नव सूत्रों के द्वारा तीर्थकर की विभूति का वर्णन किया गया। अब आगे पांच सूत्रों के द्वारा चक्रवर्ती की विभूति का वर्णन करते हैं।
द्वादश चक्रयतिन :- ॥१५॥ १ श्रीसेन, २ पुंडरीक, ३ वचनाभि, ४ वजदत्त, ५ घनघोष,