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(६७) वहां से आगे चारों दिशाओं में धर्मचक्र को धारण किये हुये यक्षेन्द्र के द्वारा अनेक प्रकार के प्रष्ट द्रव्यों से पूजनीय तथा अत्यंत मनोहर देवों के साथ पूजनीय ७५० धनुष विस्तार वाला अर्थात् विष्कम्भ वाला भगवान का प्रथम पाठ है।
उसके ऊपर अनेक प्रकार की ध्वजानों तथा अर्चनाओं से अलंकृत पूर्व सिंहासन के समान अर्थात् पूर्व पीठ के समान अत्यन्त विस्तार वाला द्वितीय पीठ है।
उसके ऊपर १००० धनुष विस्तार वाला सूर्य विम्ब के किरण के समान मूल से लेकर ६०० दंड चौड़ाई और १०० धनुष ऊंचाई वाली गंध कुटी है । परमात्मा के चरम शरीर के अंतरंग युक्त सुगंध परम सुशोभित त्रिभुवननाथ भगवान का नोट है।
आगे भगवान के पाठ महा प्रातिहार्य का वर्णन करते है-- सूत्र:-- अष्ट महाप्रातिहार्याणि ॥१३॥
श्लोक कनाड़ी श्रीमदशोक मुषकोंडे , पूमळेपर भाषे विष्टिरं यमरीज । भामंडलंत्रिलोक, स्वामित्वद लांछनं गरणानकसहितं ॥१७॥
अर्थात् भगवान के पीछे अशोक वृक्ष, ऊपर तीन छत्र, पुष्प वृष्टि, सात सौ अठारह भाषा, चमर, भामंडल, सिंहासन दुन्दुभि आठ प्रातिहार्य हैं।
अठारह महाभाषायें गाथा--
प्रवरसमाभासा खुल्लयभासाय सयाई सत्त तहा । अक्खरमणक्वरप्पय सएगीजीवारण सयलभासाओ ॥३८।। एदासु भासासू तालुवदंतोळकंठवावारे। परिहरिय एक्ककालं भबजणे दिव्यभासित्त ॥३६। . पगदीए अक्खलियो संझसिदयम्मि एवमुहसारिण । रिपस्सरदि णिरुवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणमं ॥४०॥ प्रवसेसकालसमये गणहरदेविदचक्कवट्टीयं । पण्हाणरूवमत्थं दिवझणी न सत्तभंगीहि ॥४१॥ सिय अस्थि रणस्थि उभयं अब्बेतव्यं पुणेवि तत्तिदियं । दबबम्हि सत्तभंगी प्रादेसवसेए संभवादि ॥४२॥