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सूत्र:
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द्वादश गराः ॥ १२ ॥
इसके आगे इन्द्र नील मणिमय सोपानों से युक्त एक स्फटिकमय कोट आता है उसके भी चारों ओर चार दरवाजे होते हैं। वहाँ कालीदेव द्वारपाल का काम करते हैं, जिसके अन्दर की ओर जाकर स्फटिक मणिमय सोलह भिसियों से विभाजित चारों दिशाओं में १२ कोठे होते हैं । जिनमें ये बारह गए होते हैं । सबसे पहले सर्वज्ञ वीतराग भगवान के दायीं ओर अपने कर कमलों को जोड़कर गणधर देव, पूर्वधारी, विक्रिया ऋद्धिधारी, अवधिज्ञानी मनः पर्ययज्ञानी, वादी मुनि, शिष्य मुनि ऐसे सात प्रकार के ऋषियों का समूह होता है । वहाँ से प्रागे कल्पवासिनी देवियां रहती हैं ।
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उसके आगे आर्यिका व श्राविका समूह होता है। इसके आगे वीथी है । उसके आगे ज्योतिषी देवियाँ होती हैं । उसके आगे व्यन्तरी देवियाँ होती हैं । उसके आगे भवन वासिनो देवियाँ होती हैं। तत्पश्चात् दूसरी बीथी आ जाती है । उसके आगे व्यन्तरदेय, ज्योतिष्क देव, भवन वामी देव होते है । तदनन्तर तीसरी वीथी आ जाती है। इसके बाद कल्पवासी देव होते हैं । इसके बाद चक्रवर्ती, मुकुट-वद्ध मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, भूवर, खेचर इत्यादि सभी तरह के मनुष्य होते हैं। उसके ग्रागे सिंह, व्याघ्र, सर्प सरिसृप, हाथी, घोड़े, महिष मेष, मुसा, बिलाव, विविध भाँति के पक्षी ऐसे तिर्यञ्च योनि के जीव परस्पर विरोध से रहित उपशान्त भाव से मिलकर एक हो स्थान में रहते हैं । इसके बाद चौथी बोथी श्रा जाती है। यह एक कोश के विस्तार में प्रदक्षिणारूप गरम भूमि होती है ।
श्लोक --
कल्पवनितार्या, ज्योतिर्वन भवनबुवति भुववनजा । ज्योतिष्क कल्पदेवा नरतियंचो वसन्ति वेष्टनुपूर्वम् ||२||
इसका अर्थ ऊपर दिया है ।
उसके आगे इन्द्र नील मरिणमय सोपान से सुशोभित वैमानिक देव, द्वारपाल
के द्वारा विराजित चार प्रकार के गोपुर सहित स्फटिकमय वेदिका शोभायमान है । वह इस प्रकार हैं ।
श्लोक कानड़ी में:
अनुपमबैडूर्य, कनककन शत्सर्वरल मप्पें ।
धनुगळुनाकु क्रमविं, दनाल्कुमुत्सेधमध्य पीठ त्रपदोऴ् ।। १७ ।।