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________________ (३) श्री मलम्रामरस्तोमं प्राप्तानंसचतुष्टयं ।। नत्वा जिनाधिपं वक्ष्ये शास्त्रसारसमुच्चयं ।। अर्थ--श्रीमन्-समवसरणादि बहिरंग लक्ष्मी से युक्त और (नम्रामस्स्तोमं) चतुनिकाय के देव इन्द्रादिक उनके द्वारा पूजनीय, तथा (प्राप्तानन्त चतुष्टयं) अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुस्त्र, और अनन्त वीर्य स्वरूप अनन्तचतुष्टयात्मक अन्तरंग सम्पत्ति से पुक्त ऐसे (जिनाधिपं) अनेक भवग्रहण विषयव्यसन प्रापण हेतु कर्मारातीन जयतीति जिनः, इस व्युत्पत्ति से युक्त जिन भगवान मोक्षलक्ष्मी के अधिपति अर्थात् ईश को (नत्वा) द्रव्यभावात्मक नमस्कार करके शास्त्रसारसमुच्चयं ) परमागम के सार भूत समूह को (वक्ष्येहम्) से संक्षेप मैं कहूंगा । इस शास्त्र में प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग, ऐसे चारों अनुयोगों का वर्णन है इसलिए शास्त्रसार समुच्चय सार्थक नाम है। प्रथमानुयोग प्रय त्रिविधः कालः ॥१॥ अर्थ—इस प्रकार मंगल निमित्त विशेष इष्ट देवता को नमस्कार करने के माद कहते हैं कि विविधः कालः अनन्तानन्तरूप अतीतकाल से भी अनन्त गुरिणत अनागतकाल, समायादिक वर्तमान काल, इस प्रकार से काल तीन प्रकार के होते हैं। द्विविधः ॥२॥ अर्थ--पांच भरत और पांच ऐरावतों की अपेक्षा से शरीर की ऊंचाई बल और प्रायु आदि की हानि से युक्त दस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण वाला अवसर्पिणी काल तथा उत्सेध प्राय बलादि की वृद्धिवाला दशकोडाकोड़ी सागर प्रमारण उत्सर्पिणीकाल है । इस प्रकार काल के दो मेद हो जाते हैं। षड्विधोवा ॥३॥ ____ अर्थ--सुषम सुषमा, १ सुषमा, २ सुषम दुःषमा, ३ दुःषम सुषमा, ४ दुःषमा, ५ अतिदुःषमा ६ ऐसे अवसर्पिणी काल के छः मेद हैं । इस प्रकार इनसे सलटे प्रति दुःषमा १ दुःषमा २ दुःषमसुषमा ३ सुषम दुःषमा ४ सुषमा ५ सुषम सुषमा ६ ये उत्सपिणी के छः भेद हैं। . इस अवसर्पिर्णी में सुषम सुषमा नाम का जो प्रथम काल है वह चार कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण प्रवर्तता है, इसमें उत्तम भोग भूमि को सी प्रवृत्ति होती है । उस
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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