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बालकदि को स्नान और भोजन नहीं कराना चाहिये । रसोई करना सूत कातना, सेना, प्रसि, मषि आदि छह कर्म करना, संयमी जनों के पैर धोना, साफ करना "या राग-पूर्वक गीत इत्यादि क्रियायें नहीं करनी चाहिये ।
वामक्षा के लिए श्रथवा श्राचार्यादिकों की वंदना के लिए तीन, पांच व सात मिलकर जावं । श्रापस में एक दूसरे की रक्षा करें तथा वृद्धा श्रामिका के साथ जावें ।
आगे संदा करने की रीति बतलाते हैं:
आर्यिकायें आचार्यों को पांच हाथ दूर से, उपाध्याय को छह हाथ दूर से और साधुओं को सात हाथ दूर से गौ के आसन से बैठकर वंदना करती हैं आलोचना अध्ययन स्तुति भी करती है ।
जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर सप्त परम स्थान को प्राप्त करते हैं:-- अब आगे सप्त परमस्थान का वर्णन करते हैं ।
सप्त परमस्थानानि ॥७०॥
१ सज्जा २ सद्गृहस्थत्व, ३ पारिव्राज्यत्व, ४ देवेन्द्रत्व, ५ चक्रवर्तित्व, ६ परमार्हन्त्य, ७ निर्वाणत्व ऐसे सात परम स्थान हैं ।
देश, कुल, उत्तम जाति इत्यादि शुद्धि से युक्त उत्तम कुलमें जन्म लेकर सम्यग्दृष्टि होना सज्जातित्व है ।
इसी तरह क्रम से वृद्धि को प्राप्त होकर सत्पद में आवरण करते हुए भगवान जिनेश्वर के कहे हुए उपासकाचार में निष्णात होकर श्रावकों में शिरोमणि होकर श्रावक धर्म के आचरण में उत्तरोत्तर वृद्धि करते रहना सद्गृहस्थत्व है । उस गृहस्थ अवस्था से उदासीन होकर तथा संसार शरीर और भोग की निविग्नता में परायण होकर अपनी संतान को समस्त गृहभार देकर के दिव्य तपस्वी के चरण कमलों में जाकर जातरूप धारण करना, बाह्याभ्यन्तर उत्कृष्ट तप का आचारण करते हुये ११ अंग का पाठो होकर षोडश भावनाओं को भाता हुआ तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके बुद्धि ऋद्धि, तपांऋद्धि, वैऋियिक ऋद्धि श्रौषधि ऋद्धि, बल ऋद्धि, रस ऋद्धि तथा अक्षीण ऋद्धि इन सात ऋद्धियों को प्राप्त करके दीक्षा, शिक्षा, गरण-पोषण श्रात्म संसार - संलेखना में काल को व्यतीत करते हुए उत्तमार्य काल में चतुविधि श्राराधना पुरस्कार पूर्वक समाधि fafe के साथ प्राणोत्सर्ग करना परिव्राजकत्व कहलाता है। इस फल से देव लोक में इन्द्ररूप में जन्म लेकर निजाम्बर भूषण माला श्रादि से सुशोभित
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