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अत्यन्त दिव्य शरीर सहित, अमित जीवित मानसिक ग्राहारी, शुभ लक्षणों से समन्वित होकर विविध भांति के लोगों को भोगना देवन्द्र कहलाता है। वहां से चयकर मृत्युलोक में जन्म लेकर तीन ज्ञान के धारी होकर सुरेन्द्रबंध गर्भावतरण, जन्माभिषेक कल्याण को प्राप्त होकर स्वाभाविक अतिशय सहित कुमार काल व्यतीत होने के अनन्तर पट्खण्ड पृथ्वी का अधिपति होना चक्रतत्त्व है । उस चक्रवर्ती पद से जब विरक्त होते हैं तब लोकान्तिक देव श्राकर उन्हें सम्बोधित करते हैं। तत्पश्चात् सम्बोधन करते ही देवों द्वारा निर्मित शिविका में श्रारूढ़ होकर वन में जाकर दीक्षा धारण करते हैं । मूल और उत्तर गुणों में अपने छमस्थ काल को बिता कर शुक्ल ध्यान से चारों घातिया कर्मों को नष्ट करके अनन्त चतुष्टय को प्राप्त करके समवशरण लक्ष्मी से युक्त होना परमार्हन्त्य पद कहलाता है । पहले के चारों घातिया कर्मों को नष्ट करने से दोष चार अघाति कर्म दग्ध रज्जु के समान हो जाते हैं प्रघाति चतुष्टय अनासुष्य में समान न होने के कारण उसे समान करने के लिए दंड, कपाट, प्रतर तथा लोक पूर्ण समुदघात करके योग निरोध करके निःशेष कर्मों को नाश करके सम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त होकर सिद्ध पद को प्राप्त करना, निर्वा ग्रात्व परम स्थान कहलाता है। जो मनुष्य उपर्युक्त परम स्थानों की पूजाधाराधना करता है वह तीनों लोकों में बंदनीय होकर अन्त में शुद्ध रत्नत्रय का धारण करके शुद्धात्म यानी मोक्ष पद की प्राप्ति कर लेता है ।
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ग्रागे चूलिका का वर्णन करते हैं।
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कीरिंगका वार्ता वाक्यानामुक्तिरुक्त' प्रकीर्णकम् । उक्ता उक्ता मृतास्यन्विविन्दुसाधनको विधैः ॥ आगे आचार्य का लक्षण कहते हैं:
प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः । प्रास्ताश: प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः ॥ प्रायः प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारो परानिन्दया ।
पाकाग्रणी गुणनिधिः प्रस्पष्ट सृष्टाक्षरः ॥५२॥ श्रतमधिकलं शुद्धा वृत्तिः पर प्रतिबोधने । परपरिणतिरुरुद्योगो मार्गप्रवर्तनसद्विधा ॥ बुधनुतिरनुत्सेको लोकज्ञता मृदुता स्पृहा । प्रतिपतिमुरगा यस्मिन्नन्ये च सस्तु गुरुः सप्ताम् ॥५३॥