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हाबो मुखविकारः स्याद्भावश्चितन्तु संभवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमः भ्र युगान्तयोः ॥
उसमें ऊपर चार कल्प के देवों को शब्द सुनने में तृप्ति होती है। अर्थात् अन्योन्य मृदु वचन गीतालंकार आदि को सुनकर तृप्ति को प्राप्त होते हैं। वहां से ऊपर चार कल्प के देव मन:-प्रविचार से तृप्त होते हैं । अर्थात् अपने मन में विचार कर लने मात्र से मन्मथ सुख की प्राप्ति कर लेते हैं। वे स्त्री के साथ भोग करने के समान ही सुखी होते हैं और वहां से ऊपर सभी अहमिन्द्र अन्नविचार वाले हैं । उनके समान उन देनों को मुख नहीं, ऐसा नहीं है। सेवन करने वाले यह सभी वेदनीय कर्म के उदीरणा से होने वाले दुख को उपशम करने के लिए प्रतीकार स्वरूप प्रवीचार करते हैं, वह वेदना-जन्य दुःख अहमिन्द्र कल्प में न होने के कारण वहां प्रविचार नहीं है । पांच प्रकार के अन्तराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए साता, शुभ पंचक में रहने वाले उन देवों के प्रविचार सुरत्र से अनंत गुरणा होता है । वह सुख कितना है ? इसको उपमा नहीं है, वह उपमातीत है अथांत उस सुख के समान ऐसा और कोई सुख नहीं है, अतः अहमिन्द्र ही सुखी हैं । कहा भी है :
हुषोकजमनातंक दीर्घकामोपलालितं । नाक नाकोकसां सौख्य नाके नाकौकसामिव ।
और उन वैमानिक देवों की आयु अणिमादि ऐश्वर्य, सुख, कान्ति, लेश्या की विशुद्धि, इन्द्रियों के विषय, अवधि का विषय, ऊपर-ऊपर कल्प में अधिक है। उनके रहने वाले क्षेत्र, शरीर, अभिमान, परिग्रह कम होता जाता है।
लेश्या-भवनवासी देवों से लेकर प्रथम दो कल्पों के देवों तक पीत लेश्या होती है । फिर तीसरे चौथे पांचवें युगल में पद्म होती है। छठवें मेंपद्म और शुक्ल लेश्या होती है । वहां से ऊपर सभी में शुक्ल लेश्या वाले होते हैं । भवनत्रिफ को अपर्याप्ति काल में कृष्ण नील का पोत यह अशुभ लेशा ही होती है । और उनकी विक्रिया शक्ति, अवधि का विषय, प्रथम द्वितीय मुगल बालों को, प्रथम द्वितीय पृथ्वी के अंत तक होता है, वहां से ऊपर तीन स्थानों में क्रम से श्रम से चार कल्प के देव को ३-४-५ वीं पृथ्वी तक होता है। नर्वे ग्रंबेयक.वाले और नवानुदिश वालों को ६-७ पृथ्वी तक को जानते हैं तथा विक्रिया प्राप्त करने की शक्ति वाले होते है। पंचानुत्तर के अहमिन्द्रलोग सातवीं पृथ्वी तक प्रत्यक्ष से जानते हैं । अपने-अपने अवधि क्षेत्र तक अपने अपने शरीरको भी फैलाते हैं और उस पृथ्वी को उलटने की ताकत भी रखते हैं।