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( १०५ ) पहले कहा हुआ जम्बुद्वीप प्राकारादि से घेरा हुअा वज्रवेदिका व २००००० योजन विस्तार वाले लबरण समुद्र से घेरा हुआ है । समुद्र के बीच में १००००० योजन लम्बे चौड़े (मूल में) मध्य विस्तार १०००० हजार योजन गहरे और उसी प्रमाण के मुख विस्तार वाले महा पाताल, चारों दिशाओं में चार हैं। उससे दक्ष गुगणे छोटे पाताल ईशान आदि दिशात्रा में १० हजार योजन विस्तार वाले हैं । समस्त पाताल १०० हैं । उनके नीचे के तीसरे भाग में केवल वायु भरी हुई है । ऊपर एक भाग जल से ही भरा हुआ है, दीच के भाग में जल और वायु है। कृष्ण पक्ष में नीचे की वायु समुद्र के बीच में से उछल कर पहले से जल हानि होती है। शुक्ल पक्ष में वायु ऊपर से और जोर से चलने से बात वृद्धि होती है । कहा भी है कि:
हेड्डु परियतिम भागे रिणयदब्बाल ज्लन्तुमझाम्म । जलयां जलवाडि किण्हे, सुक्केय पादस्सा ॥१२॥
इस कारण से चन्द्रमा के साथ समुद्र का पानी बढ़ता है और फिर घटता जाता है, ऐसा कहते हैं अत: शुक्ल पक्ष में समुद्र में पानी बढ़ता है और कृष्ण पक्ष में पानी कम होता है ।
आगे धातकी खंड और पुष्कराध के स्वरूप को कानड़ी छन्दों में बतलाते हैं।
वक्षार कुलाचल। शरदंबुज पंड कुड मेंब नितरवि-॥ स्तार मिमडि गेयदपुछ। सरिसंगुबे ळगं पुष्कराचं बरेगं ॥३४॥ गिरि मानुषोतरं पु-।
करार्ध वोळ नरर्गे वज्रवेविकेयिप्पं-।। तिरे सुत्तिर्दत्तरोळ । घर जिनभवनाळि नाल्के नाल्कु देशेयोळ ॥३५॥ मंदर महियद रोळं जिन-। ' मंदिर मेंभतु नरु वक्षार दोळं ॥ संदिपकार चतुष्कदो-। ळंदिन कृत प्रभुकुलाद्रि मूवत्त रोळं ॥३६॥