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________________ सदा होते रहते हैं और चक्रवर्ती, अर्ध चक्रवर्ती, मंडलीक, महामंडलीक, मुकुटबद्ध राजा सदा होते हैं । तीर्थकर परमदेव, अनगार केवली, श्रुतकेवली, चारण ऋद्धि धारी मुनि, ऋद्धि धारो मुनि, सर्वावधि-सम्पन्न, मनःपर्यथ--ज्ञानी, परिहारविशुद्धि संयमी, आहार ऋद्धि प्राप्त मुनि, अष्टांग निमित्त ज्ञानी, परम भावना निरंजन शुद्धात्म भावना में रत भेदाभेदरत्नत्रय-प्रिय. भेद-विज्ञानी ऐसे परम योगी निरन्तर विदेह क्षेत्र में होते रहते हैं ? इस प्रकार विदेह में हमेशा समान काल प्रवर्सता है। सप्तत्यधिकशतविजयाधपर्वताः ॥१९॥ अर्थ-१७०विजया पर्वत हैं । वे इस प्रकार हैं- भरत, ऐरावत, विदेह के बीच में पूर्व से पच्छिम तक फैले हुए २५ योजन ऊंचे, मूल, मध्य शिखर भाग में कम से ५०-३०-१० योजन विस्तार वाले विजयार्द्ध पर्वत हैं । विजयार्द्ध पर्वतों को तीन मेखला(श्रेणी) हैं उनमें से पहली मेखला(धेरणी) में विद्याधर रहते हैं । प्राभियोग्य जाति के तीन प्रकार के देव द्वितीय मेखला में रहते है। शिखर में सिद्धायतनादि कूट होते हैं ? विजयार्द्ध पर्वत के ऊपर से आती हुई दो नदियों के कारण क्षेत्र के छह खंड हो जाते हैं। वृषभगिरयश्चोति ॥२०॥ अर्थ-विदेह, भरत, ऐरावत के मध्य म्लेच्छ खंडों में १७० वृषभ शतयोजनमुन्नतिथि। दतीत चक्रिगळ पेसळ दिडिगिरि-।। जितमागिनिद वृषभ। क्षितिधर मुख्यंगळोंदु गेयदेसेदिक्कु ॥३२॥ कुलगिरि कुलनदि रजता-। चल वक्षारादि कनकगिरि जम्बूशा-॥ लमलि विजयविभंग नदि । कुलमेंदिव नेदु मदु पुदु गेळिसिक्कु ॥३३॥ अर्थात्-एक सौ १.० योजन ऊंचे, प्रतीत काल के चक्रवर्ती के नामों से भरे हुए अत्यन्त उम्मत वृषभगिरि पर्वत पांच दिशामों में खड़े हैं। कुलमिरि कुलनदी, रजसाचल, क्षाराद्रि, कनकगिरि, जम्बू शाल्मली, विधेय, विभंग नदी कुल इत्यादि नाम हैं।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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