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________________ (१०) शतयुत सप्तति रुप्य । क्षितिधर दोळ मैयदु शाल्मलियोळं जम्बू- ॥ क्षिति रूह पंचफ वोळ मु-। न्नत गृह मोरोंदमेल्लवं वंदिसुवे ॥३७॥ गाथा: लबरणहर लोय जिणपुर चत्तारि सयारिण दोविहिणाणु। बावण्ण चउ चउ कोडि सरकुडले रुध ॥१३॥ मंदर कुलबक्खारिसु मणुसुत्तर रुप्प जंबुसामलिसु । सोदिति सन्तु सयं चउचउ सत्तरि सय दुपणं ॥१४॥ अर्थ-वक्षार कुलाचल के नदी, सरोवर, तालाबादि विस्तार की अपेक्षा से प्राधे 7 हैं और ये पुकारा लक मान सत्सेधनाले हैं। पुष्कर द्वीप के बीच में मानुषोत्तर नामक पर्वत है जो कि वलयाकार होते हुये मनुष्यों के लिए वज्र वेदिका के समान है। उसके चारों ओर दिशाओं में धार जिन मन्दिर हैं। पांच मेरु सम्बन्धी जिन मन्दिर ८० है। सौ वक्षारों में हैं, कुलादि पर ३० हैं । वक्षार पर्वतों पर १०० हैं । १७० विजयार्द्ध गिरियों में हैं। ये उन्नत जिन मंदिर हैं। उनको मैं नत मस्तक होकर नमस्कार करता हूं। इस प्रकार बीस सूत्र तक मध्य लोक के स्वरूप का निरूपण किया। ऊर्ध्व लोक का विवरण । देवाश्चतुरिणकायाः ॥१॥ अर्थः-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक ये चार प्रकार के देव हैं 1 पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त दिव्य सुखों के वे स्वयमेव अधिकारी हैं। वनिता बिम्बाधरचु। बनविरसं स्वरूप लावण्य विलो॥ कनहिन्यकण्न पुरनिस्वन दिकि वितनुलसत्कुचस्पर्शनविस ॥३॥ नममग विन्द पोमुव । सुगन्धवि प्रारदिच्छेयि सलिसुव प-10 ..
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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