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श्रवसंप्पणी उस्स्प्परगीकालसलाया असखपरिवत ॥ हु' डावसम्परिगसापेक्काजामेदितिय चिम्मामि ॥ ३ ॥
इस प्रकार श्रवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल असंख्यात बीत जाने के बाद एक हुडावसर्पिणी काल होता है। अब उसी के चिन्ह को बतलाते हैं । तस्सपि सुषम दुस्समकालस्सदिदिमिदोवा ॥
श्रवसेसे पिवड दिपासउबहुवियदिय जोव उप्पत्ति ॥४॥
अर्थ - उसमें सुषम दुःखमा काल के समय में त्र होकर धूप पड़ती है जिससे विकलेंद्रिय जीवों की उत्पत्ति होती है ।
कप्पतरूणा विरामोवा गारोहोदि कम्मभूमिये ॥ तक्काले जायंते पढमजिरो पढमचक्कीय ॥ ५ ॥ चकिस्सविजय भंगो रिणच्बुदिगमणे थोव जीवाणं ॥ चक्कहरा उदिजागं हवेयिवं सस्स उप्पत्ति ॥६॥
अर्थ -- कल्प वृक्षों का विराम होते ही तत्काल प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं । चक्रवर्ती की विजय में भंग होता है । तथा उस चक्रवर्ती के निमित्त से ब्राह्मणों की उत्पत्ति होती है । फिर तीर्थंकर तथा वह चक्रवर्ती निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। एवं आगे भी तीर्थकर चक्री आदि होते रहते हैं ।
दुस्सम सुसमो तिसद्विपमारण सलायपुरुसाय ॥ नवमादिसोलसते संतसुतिव्वे सुदमवोच्छे हो ॥७॥
अर्थ- दुःसम सुषमा काल में क्रमश: ( ६३ ) शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं । वहां नवम तीर्थकर के बाद सोलहवें तीर्थकर तक धर्म की हानी होती है । इन सात तीर्थंकरों के समय में क्रम से, श्रात्रा पल्य, पल्य का चतुर्थांश, पल्य का द्विभाग पल्य का त्रिभाग, पल्य का द्विभाग फिर पत्र का चतुर्थभाग में तो धर्म के पढ़ने वाले सुनने वाले और सुनाने वाले होते हैं। इसके बाद पढ़ने वाले और सुनने तथा सुनाने वाले न होने के कारण धर्म विछिन्न होता है ।
एक्करस होंति रुद्दाकलहपिहना र दोयरग वसंखा ॥ सत्तम तेबीसन्तिमतित्थय राचजवसग्गो
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अर्थ-- इस कालमें एकादश रुद्र होते हैं, तथा कलह प्रिय नव नारद होते हैं, और सातवें तेईसवें तथा चौबोसवें तीर्थंकर को उपसर्ग होता है !