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________________ १ क्षयोपशम लब्धि, २ विशुद्धि लब्धि, ३ देशना लब्धि, ४ प्रायोग्य लब्धि और ५ वीं करण लब्धि । इस प्रकार जब पांच लब्धियां प्राप्त हो जाती हैं तब इनके सहयोग से संसारी जीवों को प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होतो है। उसका विवरण यह है:--जब वाभी अशुभ अगों की अनुभाग शक्ति को प्रति समय अनन्त गुण हीन फर हुये उर्द.२५] होने योग न लिया जाता है उस अवस्था का नाम 'क्षयोपशम नब्धि है। सातायादि प्रशस्त प्रकृत्तियों के बंध योग्य परिणाम का होना विशुद्धि लब्धि है। ___जीवादिक वस्तु के वास्तविक स्वरूप का उपदेश करने वाले प्राचार्यों का निमित्त पाबार उनका उपदेश सावधानी से श्व वरण करना देशना लब्धि है। अनादि काल से उपाजित किये हुये ज्ञानावरणादि सात कमों की स्थिति को घटाकर अन्सः कोड़ा कोडी सागरोपग प्रमाण कर लेने की योग्यता प्रा जाना तथा लता, दारु, अस्थि और शैल रूप अनुभाग वाले चार घातिया कर्मो की अनुभाग शक्ति को घटाकर केवल लता और दारु के रूप में ले पाने की शक्ति हो जाना 'प्रायोग्य शाब्धि है । ये चारों लब्धियाँ भव्य तथा अभव्य दोनों प्रकार के जीवों को समान रूप से प्राप्त होती हैं ।। परन्तु अब पाँचत्रीं करण लब्धि, जो कि केवल प्रासलभव्य जीवों को ही प्राप्त होती है, उसका स्वरूप कहते हैं। भेदाभेद रत्न-त्रयात्मक मोक्षमार्ग को तथा सम्पूर्ण कर्मों के क्षय स्वरूप मोक्ष को और अतीन्द्रिय परम ज्ञानानन्दमय मोक्ष स्थल को अनेक नय निक्षेप प्रमारणों के द्वारा भली भांति जान कर दर्शन मोहनीय के उपशम करने योग्य परिणामों का होना 'करण लब्धि' है । अदु दर्शन रत्न प्रद। मदु सुचरित जन्म निलय मंतदु भव्य ॥ त्वद कण्देरवि विवेक। कवु फलमदु बुधजन प्रणतं ख्यातं ॥१॥ करणं त्रिविधम् ॥२॥ अर्थ-१ अधः प्रवृत्ति करण, २ अपूर्व करण तथा ३ अनिवृत्ति करण इस प्रकार करण के ३ भेद होते हैं। प्रत्येक करण का काल अन्त मुहर्त होता है । फिर भी एक से दूसरे का काल संख्यात गुरणा हीन होता है। उसमें अधः प्रवृत्तिकरण काल में यह जीव प्रति रामय उत्तरोतर अनन्त गुगणी विशुद्धि को
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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