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________________ प्राप्त होता हुआ चला जाता है । जिसमें प्रति समय संख्यात लोक मात्र परिणामों के चरम समय तक समान वृद्धि से बढ़ता चला जाता है । इस अघः । प्रवृत्ति करण का कार्य स्थिति बंधापसरण है। अब इसके आगे अपुर्ण-करण का प्रारम्भ होता है जिसमें असंख्यात लोक प्रमाण विशुद्धि क्रम से प्रति समय समान संख्या के द्वारा बढ़ती जाती है। इसका काम स्थिति बंधापसरण, • स्थिति कांडक घास माग, कांसक पापा मंकमा गौर गुरण श्रेणी निर्जरा होना है। अधः प्रवृत्ति करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भी समान हो सकते हैं तथा एक समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश भी हो सकते हैं । परन्तु अपूर्व करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न जाति के ही होते हैं। फिर भी एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सभी जीवों के समान न होकर विभिन्न जाति के ही होते हैं। अब इसके आगे आने वाले अनिवृत्ति करण में भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम भिन्न जाति के ही होते हैं। और एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सभी के एक से ही होते हैं। इस प्रकार सुदृत परिणामों के द्वारा वह भव्य जीव पूर्व की अपेक्षा और भी अधिक स्थिति बंधापसरण करने वाला होता है। इस ! अनिवृत्ति करण के अन्त समत्र में चतु गति में उत्पन्न होने वाला भव्य जीव ही गर्भज पंचेन्द्रिय सैनी पर्याप्तक अवस्था को प्राप्त होता हुआ शुभ लेश्या सहित होकार ज्ञानोपयोग में परिणत होता हुआ बह जीव इस अनिवृति करण नामक बच्चदंड के घात से संसार वृद्धि के कारण रूप मिथ्यात्व रूपी दुर्ग को नष्टभ्रष्ट कर देता है। और सम्यग्ज्ञान लक्ष्मी के अलंकार स्वरूप सम्यग्दर्शन को उस शुभ मुहूर्त में प्राप्त हो जाता है। उदयिसि दुदु वर भव्यन । हृदय दोळमिरततरणि सकला भिमत ॥ प्रवचिन्तामरिणतविलि। ल्लिद संवेगादि गुरषदकरिण सम्यक्त्वं ॥२॥ प्रतु परमात्मपदमन । नंतज्ञानादि गुरणगगाजितमं । भ्रांतिसदे लब्धियशदि । दंतिळि बडिगडिगे रागिसुत्तिांगळ् ॥३॥
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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