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(१६) अर्थ-सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है।
१. प्राप्त, आगम और पदार्थो के स्वरूप को जानना और उन पर समुचित रूप से ठीक ठीक श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
२-निज शुद्धात्मा ही साक्षात् मोक्ष का कारण है, इस प्रकार जानकर दृढ़ विश्वास करना निश्चय सम्यग्दर्शन है । अथवा नय निक्षेपादि के द्वारा पदार्थ के स्वरूप को अपने आप जानना निसर्गज सम्यग्दर्शन है। और पराश्रय से पदार्थों के स्वरूप को जानकर विश्वास करना अधिगमज सम्यग्दर्शन है । तथा जहाँ तक सम्यग्दर्शन में स्व और पर के विकला रूप आश्रय हो वह सराग सम्यग्दर्शन होता है और वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन मात्र का अवलंबन जहां पर होता है वह वीतराग सम्यग्दर्शन है।
त्रिविधम् ॥४॥ अर्थ-प्रीपशमिक, वेदक और क्षायिक के भेद से सम्यग्दर्शन तीन प्रकार का भी होता है । वह इस प्रकार है:
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक प्रकृति मिथ्याल्ब इन सात प्रकृतियों के उपशम होने रो औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। अनन्त्रानुबन्धी. कपाय, मिथ्यात्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व के उपशम होने से और सम्यक् प्रकृति के उदय होने से जो सम्यक्त्व होता है उसे वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। सातों प्रकृतियों के परिपुर्णतया नाश होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
वेदक सम्यग्दृष्टि जब उपशम श्रेणी के सन्मुख होता है तब द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है । जिस वेदक सम्यक्त्व से क्षायिक सम्यक्त्व होता है वह कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्व कहलाता है ।
दशविधं वा ॥५॥ अर्थ-अथवा सम्यग्दर्शन १० प्रकार का है:...-१ आज्ञा सम्यक्त्व, २ मार्ग सम्यक्त्व, ३ उपदेश सम्यक्त्व, ४ सुत्र सम्यक्त्व, ५ बीज सम्यक्त्व, ६ संक्षेप सम्यक्त्व, ७ विस्तार सम्यक्त्व, ८ अर्थ सम्यक्त्व, ह अवगाढ सम्यक्त्व, १० परमावगाढ़ सम्यक्त्व,
जिनेन्द्र भगवान की प्राज्ञा का श्रद्धान करने से जो सम्यग्दर्शन होता है वह प्राज्ञा सम्यक्त्व है। ।।१।। जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रदर्शित मुक्ति मार्ग ही यथार्थ है ऐसे अचल श्रद्धान से जो सम्यक्त्व होता है वह मार्ग सम्यक्त्व है 11२॥ निमन्ध मुनि के उपदेश को सुनकर जो प्रात्म-रुचि होकर सम्यदर्शन होता है वह