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________________ { २५६) समय के लिए निर्मल होते हैं सो प्रौपशमिक भाव हैं। उनके दो भेद है १ सम्यक्त्व, २ चारित्र ।। अनादि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबंधोक्रोध, मान माया लोभ इन पांच प्रकृतियों तथा सादि मिथ्या-दृष्टि के मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ इन सात फर्मों के उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ के सिवाय चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम चारित्र (ग्यारहवें गुणस्थान में) होता है। क्षायिको नवविधः ॥१६॥ कर्मों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो प्रात्मा के पूर्ण शुद्ध भाव होते हैं वे क्षायिक भाव हैं । क्षायिक भाव के भेद हैं । १ ज्ञान (केवल ज्ञान), २ दर्शन (केवल दर्शन), ३ क्षायिक दान, ४ क्षायिक लाभ, ५ क्षायिक भोग, ६ क्षायिक उपभोग, ७ क्षायिक वीर्य (अनन्त बल), क्षायिक सम्यक्त्व और ६ क्षायिक चारित्र। . ये क्रम से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय (५ तरह का) तथा दर्शन, चारित्र मोहनाय के क्षय हो जाने से प्रगट हो जाते हैं। अष्टादशविधः क्षायोपशमिकः ॥२०॥ अर्थ-कर्म के सर्वधातो स्पद्धकों के उदयाभाव रूप क्षय (उदय होते हुए भी फल न देना) , अन्य बद्ध सर्वधाती स्पर्द्धकों का सत्ता में उपशम तथा देशघातीस्पर्द्धकों के उदय होने पर जो भाव होते हैं उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं । उनके १८ भेद हैं १-मतिज्ञान, २-श्रुतज्ञान, ३–अवधिज्ञान, ४-मनपर्यय ज्ञान, ५फुमति ६-कुश्रुत, ७-कुअवधि, 5-चक्षुदर्शन, ६-प्रचक्ष दर्शन, १०अवधिदर्शन, ११-दान, १२-लाभ, १३-भोग, १४-उपभोग, १५-वीर्य, १६-सम्परव, १७-चारित्र और १५-संयमासंयम ।। पहले के ७ भेद ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से, उसके बाद के ३ भेद दर्शनावरण के क्षयोपशम से, फिर आगे के ५ भाव अन्तराय के क्षयोपशम से और अन्तिम तीन भेद क्रम से दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय (प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानाचरण) के क्ष योपशम से होते हैं। . ..
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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