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तापसी ने क्रोध में आकर जब कुल्हाड़ी से वह लकड़ी फाड़ी तो सचमुच मरणोन्मुख नाग नागिनी उसमें से निकले। भगवान पार्श्वनाथ ने उनको णमोकार मंत्र सुनाया । नाग नागिनी ने शान्ति से णमोकार मंत्र सुनते हुए प्राण त्यागे और दोनों मर कर भवनवासी देव देवी धरणीन्द्र पद्यावती हुए।
राजकुमार पार्श्वनाथ ने अपना विवाह नहीं किया और यौवन अवस्था में ही संसार से विरक्त होकर मुनि दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान हो गया। चार मास पीछे एक दिन जब वे ध्यान में बैठे हुए थे तब कमठ का जीव असुर देव उधर होकर आकाश में जा रहा था। भगवान पार्श्वनाथ को देखकर उसने फिर' पूर्व भवों का वैर विचार कर भगवान के ऊपर बहुत' उपद्रव ( उपसर्ग ) किया । उस समय धरणीन्द्र पद्यावती ने आकर उस असुर को भगा कर उपसर्ग दूर किया, उसी समय भगवान को केवल ज्ञान हुआ। तब समवशरण द्वारा समस्त देशों में धर्मप्रचार करते रहे । उनके स्वयम्भू आदि १० गणधर थे, सब तरह के १६ हजार मुनि और सुलोचना प्रादि १६ हजार आयिकाएं उनके संघ में थीं । धरणेन्द्र यक्ष पद्यावती यक्षी, सर्प का चिन्ह था । अन्त में अापने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की ॥ २३ ।।
भगवान बद्धमान (महावीर) जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में बहने वाली सोता नदी के उत्तरी तट पर पुष्कलावती देश है । उस देश में पुण्डरीकिणी नगरी है। उस नगरी के निकट मधु नामक एक बन है । उस बन में 'पुरूरवा' नामक एक भील रहता था। उसकी स्त्री का नाम 'कालिका' था । जंगली जानवरों को मार कर उनका मांस खाना पुरूरवा भील का मुख्य काम था। एक बार उस वन में 'सागरसेन' मुनि श्रा निकले, पुरूरवा ने दूर से उन्हें देखकर हिरण समझा और उनको मारने के लिए धनुष पर वारण चढ़ाया । उसी समय उसकी स्त्री ने उसे रोक दिया और कहा कि वे तो एक तपस्वी मुनि हैं। पुरूरवा अपने अपराध को क्षमा कराने के लिए मुनि महाराज के पास पहुंचा । मुनि महाराज ने आत्मा को उन्नत करने • वाला धर्म का उपदेश दिया। उपदेश सुनकर पुरूरवा ने शराब, मांस, शहद
खाना छोड़ दिया। प्राचरण सुधार लेने के कारण बह मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । देव की आयु समाप्त करके वह भील का जीव भगवान ऋषभनाथ के ज्येष्ठ पुरः चक्रवर्ती भरत का 'मरीचि' नामका पुत्र हुआ।
जब भगवान ऋषभनाथ ने साधु दीक्षा ली थी तब मरीचि भी उनके • साथ मुनि बन गया था, परन्तु कुछ समय पीछे वह तपश्चरण में भ्रष्ट होकर